तुम स्मृतियों की पतवार लिए
मिलना मुझसे उस पार प्रिए
ना देश काल की सीमा होगी
ना धर्म जाति के बंधन होंगे
कहीं समय से दूर निकलके
तुम लेना मेरा हाथ प्रिए
मिलना मुझसे उस पार प्रिए
सांसारिकता का व्यापार न होगा
बस शुद्ध मिलन के नियम होंगे
भौतिकता का स्पर्श न होगा
प्राणों के मधुर संलयन होंगे
ऐसी अनुपम सृष्टि में तब
होगा अपना संसार प्रिए
मिलना मुझसे उस पार प्रिए
कोई भेद छिपेगा ना फिर
आंखें ही सब बोलेंगी
मन ने मन को कितना त्रास दिया
ये मन से ही सब कह देंगी
दो अश्रु मिलन की बेला में
होंगे अमूल्य उपहार प्रिए
मिलना मुझसे उस पार प्रिए-
मैं
नदी के
इस ओर
खड़ा
होकर
चाह रहा हूं
'आलिंगन' !
उसने
उस पार
अपना संसार
बसा रखा है ।-
"तू जानता है उस पार मेरा सब कुछ है ,
तू कश्तियों से मेरी बात क्यों नहीं करता..!!!"
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बहुत कुछ लांघना पड़ता है
उस पार पहुंचने से पहले
कितनी बेतुकी उलझनें
असंख्य भ्रम जाल
बहुत कुछ लील लेता है
वो पल गुज़र जाने के बाद
कितने क्यास अहसास जुड़ जाते हैं
बेतरतीब आहटों
के साथ
सनसनाती हवाओं के साथ किसी का ख़्याल
बरसात के साथ किसी की सुगबुगाहट
चांद की धुंधली रोशनी में कोई ख़्वाब
इक दिन सब धुल जाता है
ये आकर्षण विकर्षण...
अंत से पुनः आरम्भ होता है
उस ओर से इस ओर आने का
नवीन अनुक्रम...
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कितनी मुश्किल से इक दरिया पार किया,
देखा तो उस पार दूसरा दरिया था ।
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जो मुश्किलों से डरा तू, तो मंझधार में रह जायेगा..
अपने हौसलें और कस्ती पे भरोशा कर ऐ मांझी..
वो ही तुझको उस पार ले जाएगा..
तेरे अंदर के तूफान को देख ये तूफान भी डर जाएगा..
छोड़ के तेरा रास्ता वो ख़ुद ही लौट जाएगा
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उसको मैं जितना पढ़ती हूँ
उतनी बार गिरती हूँ प्रेम में
क्या प्रेम के भी हाँथ पैर होते हैं
जो लड़खड़ा कर गिरता है बार बार
सम्भालता है फिर सम्भलते सम्भलते
फिर फिसल जाता है क्यों
वो नींदें भी चुराता है शायद बहुत बड़ा
चोर है प्रेम
कभी कभी तो हथकड़ियां पहना देता है प्रेम
कि कहीं और ना आ जा सके क्या वो बांध
देता है एक सेतु जो इस जनम से उस जनम
तक साथ चलने का वादा करता है
कभी खुद से विरक्त करता रुठता मनाता
कभी कभी तो बहुत चीख पुकार करता
क्या ऐसा भी होता है प्रेम
प्रेम मेरी कल्पना भी है मेरा जीवन भी
पर प्रेम में खुद को गढ़ते गढ़ते कई बार
चुभ गया मैं क्या प्रेम पीड़ा भी देता है
कोई उल्लेख कर सकता है आखिर प्रेम
में इतनी व्याकुलता क्यों
और गर और कोई तारीफ कर दे तो
चिढ़ता भी है प्रेम क्यों क्या इतना प्यारा
होता है ये प्रेम
सब भाव मिलते हैं हँसी खुशी कभी गाते
तो कभी रौशन करते जहाँ को
जैसे प्रेम में रंगा हुआ देखना चाहते हों
सारा जहां,पर अस्तित्व तलाशों पहले खुद में
प्रेम आसान नहीं, बहुत परीक्षा लेता है ये प्रेम-
इन कश्तियों बीच कहीं मेरी भी इक नाव है,
उस पार बसा कहीं दूर मेरा भी इक गांव है।
जहां नर्मी भरी धूप है और पेड़ की छांव है,
टिक जाते जहां गैरों के भी चलते पांव है।
आ चलें उधर ही जिस और अपना गांव है,
है मचल रहा मन, टिकता ना ये इस ठांव है।-
जाती हूँ कई बार
बंद छोर तक
जाने क्यूँ
मुझे
उस पार
उमीदें सुनायी
देती है
सबको दिखता
ये लौट जाने
का सबब
जाने मुझे ही
क्यूँ ये
अब भी
एक
विकल्प
लगता है
ना जाने क्यूँ
एक रौशनी
उस पार
दिखायी देती है
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