इन्दु प्रकाश द्विवेदी   (इन्दु)
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लखनवी
Joined 23 September 2021


लखनवी
Joined 23 September 2021

सर उठाने लगी है वहशत फिर।
है ये सदमे में अपना भारत फिर।

खूँ बहाकर  निरे   मासूमों का, 
उसने फैलाई  यहां दहशत फिर।

बाज़ आता नहीं  है फ़ितरत से,
उसने दोहराई अपनी हरकत फिर।

सबक अबके सिखाना है ऐसा 
कर सके अब न ये हिमाक़त फिर।

तोड़ दें इस तरह इसे अबके,
सर उठाने की हो न क़ूव्वत फिर।

न    रहे    बांस न    बजे बंसी,
ख़त्म हो जाय सब मुसीबत फिर।

दिलों में प्यार की खिले केसर,
अपना कश्मीर बने जन्नत फिर।








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ग़ौर कीजियेगा ~

ये सच है ज़्यादा ख़ुशहाली नहीं है।
मगर जीवन में कंगाली नहीं है।

मुरादें सबकी पूरी कर रहा हूँ,
किसी की इल्तिजा टाली नहीं है।

किराएदार तो कितने खड़े हैं,
मगर दिल का मकाँ खाली नहीं है।

ख़िजाँ का दौर है माना चमन में,
हुई पर ख़त्म हरियाली नहीं है।

ये दौलत, शोहरतें उनको मुबारक़,
कभी ये जुस्तजू पाली नहीं है।

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बिल्कुल ताज़ा अशआर, आपकी नज़्र-

दर्द हम ओढ़ें भी,बिछाएं भी।
और ये हुक्म, मुस्कुराएं भी।

ज़ुल्म चुपचाप सहें हम उनके,
और एवज़ में दें दुआएं भी।

उनकी ख़ातिर कुआँ भी खोदें हम,
प्यास से फिर हमीं मर जाएं भी।

ख़ताएं उनकी अपने सर ले लें,
काट लें उनकी सब सज़ाएं भी।

हर तरफ़ एक सा तमाशा है,
हमने दाएं भी देखा बाएं भी।

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एक ताज़ातरीन ग़ज़ल के चन्द अशआर पेश हैं।
ग़ौर फ़रमाइए!

लुट गए सारे रोज़गार मेरे।
अब ज़रा बख़्श दो सरकार मेरे।

जब न बाज़ार का रुख़ मैंने किया,
देखो घर आ गया बाज़ार मेरे।

जिनको दुलराया फूल जैसा,कभी
चुभे हैं बन के वही ख़ार मेरे।

कितने अहसास मर गए यूँ ही,
कह न पाए जिन्हें अशआर मेरे।

क़दर करनी है आज ही कर लो,
कल कहाँ होंगे फिर दीदार मेरे।

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पेश हैं एक नई ग़ज़ल के चन्द अशआर
#विश्वकविता_दिवस पर~
@highlight
#WorldPoetryDay

अक़्ल से फ़ुरसत करके देखो।
दिल की सोहबत करके देखो।

दुनिया भली नज़र आएगी,
यार मोहब्बत करके देखो।

ख़ुशबू फूटेगी अंदर से,
गुल-सी फ़ितरत करके देखो।

ठोकर से उछलेगी दुनिया,
थोड़ी ज़ुर्रत करके देखो।

इज़्ज़त की ख़्वाहिश रखते हो,
सबकी इज़्ज़त करके देखो।

कुछ बेहतर महसूस करोगे,
थोड़ी कसरत करके देखो।

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आज की पेशकश ->

काम आई न बन्दगी आख़िर।
कट गई यूँ ही ज़िन्दगी आख़िर।

सिर्फ़ वहम ओ गुमां में खर्च हुई,
हाय निकली ये तिलिस्मी आख़िर।

चाहते थे बहुत इंसां होना,
रह गई कुछ न कुछ कमी आख़िर।

बेवफ़ाई ख़ुशी ने की अक्सर,
दोस्ती ग़म ने निभाई आख़िर।

जाम भर-भर के पी लिये कितने,
बुझ न पाई ये तिश्नगी आख़िर।

इल्म से कुछ न जब हुआ हासिल,
चल पड़े राह इश्क़ की आख़िर।

और कुछ बस में अपने था ही नहीं,
लग गये करने शायरी आख़िर।

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ग़ौर फ़रमाइयेगा ~

रेखाओं का चक्कर देखा।
महल हुए सब खंडहर देखा।

हारा हुआ सिकंदर देखा।
जीता हुआ कलंदर देखा।

सब में एक मदारी पाया,
सब में ही इक बन्दर देखा।

ऊपर सजी हुई मुस्कानें ,
भीतर उठा बवंडर देखा।

सच एकांतवास में बैठा,
झूठों का इक लश्कर देखा।

जिन आँखों में ख़्वाब सजे थे
वीरानी का मंज़र देखा।

कल तक ताज सजे थे जिन पर
उन्हें जेल के अंदर देखा।

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आज की पेशकश ~

बेहयाई अभी चलन में है।
हर बुराई अभी चलन में है।

शर्म की बात इसमें कोई नहीं ,
बेवफ़ाई अभी चलन में है।

हो रहे ट्रोल तो सेलेब्रिटी हो,
जगहँसाई अभी चलन में है।

ज्ञान गूगल से, व्हाट्सएप से लो,
ये पढ़ाई अभी चलन में है।

अगर काली भी है तो क्या ग़म है,
ये कमाई अभी चलन में है।

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इश्क़ आब ए हयात है हमको।
इश्क़ ही कायनात है हमको।

इश्क़ ही हो न ज़िन्दगी में अगर,
दिन भी ये मिस्ल ए रात है हमको।

ये कोई आजकल की बात नहीं,
ये सिफ़त जन्मजात है हमको।

इश्क़ मामूली शय नहीं यारों,
हासिल ए इल्तिफ़ात है हमको।

तोड़ देता है ये हर इक ज़ँजीर,
इश्क़ राह ए नज़ात है हमको।

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दर्द का ये क़ाफ़िला रुकता नहीं।
दिल का लेकिन हौसला चुकता नहीं।
मौत बस एक मरहला है दो घड़ी,
ज़िन्दगी का सिलसिला रुकता नहीं।

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