किसी नई सहर की डगर होती है।
सहर मंज़िल, रात सफ़र होती है।
रात को सब पता है,
रात को सब ख़बर होती है।
सुबह कब जागेगी,
रात को फिकर होती है।
बस हम ही नादान हैं,
हमें कुछ मालूम नहीं।
जो हम सोचते हैं,
कि सहर किधर होती है!-
सृजन का बीज बोता हूँ कभी,कभी संहार लिखता हूँ|
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इतवार की शाम,
सभी खयालात, सभी जज़्बात
हमें सहसा इस तरह घेर लेते हैं,
जैसे गगन पर रोज़गारी कर,
पंछी घर वापस जा रहे हों।
जैसे अनंत विजन की फेरी लगा,
सूरज थककर सो जाता हो।
या दूरस्थ पर्वतों से कलकल
नदियां बहते बहते थम जाएं।
इतवार की शाम
अपनेपन का बोध कराती है।-
गोधूलि को कैद कर लो आंखों में, कहीं ये लम्हा गुज़र ना जाए।
क्या ख़बर इस वक्त बाद, ये सुकूं भरा दृश्य नज़र ना आए!-
दोपहरी का जैसे नूर पिघलता हो हमारे चेहरों पर,
कुछ ऐसी तपिश मोहब्बत की हम पर पड़ती रहे।-
अबकी शामों का रंग ज़रा कुछ गहरा होगा।
इश्क़ के साए होंगे जब और हुस्न का पहरा होगा।
हमारी नज़र भी चौंध जायेगी झिलमिलाती सांझ में,
निगाहों के सामने गर बस तेरा ही चेहरा होगा।
तू इन सागर सी गहरी आँखों से कभी देख तो मुझे,
मेरा दिल भींगा हुआ कोई मजबूर सहरा होगा।
माना कि कभी वक्त हमारे चाहने से चल पाया नहीं,
मगर इक बार तो इस वस्ल पर वक्त भी ठहरा होगा।-
इश्क़ की तपिश में पिघलता रहा।
कुछ मलाल बाकी था, जो
मन को कचोटता, निगलता रहा।
एक टीस थी जो शरर के मानिंद रही,
मैं हर दफा जिसकी चिंगारियों में जलता रहा।-
एक दिन समग्र सृष्टि ध्वस्त हो जायेगी।
और सारे समाज, सभी कुनबे समाप्त हो जायेंगे।
विनाश की वेदी पर जब मनुष्य खड़ा होगा,
और अपनी अंतिम सांसें भर रहा होगा,
तो सिर्फ़ यही मलाल बाकी रह जायेगा,
कि गर सिर्फ़ क्षमा और प्रेम करना ही सीखा होता,
तो जाने कितनी गिरहें जीवन की सुलझ जातीं।-
सुखनवरों ने तुलना की प्रेम की
नदी, हवा, या आग से।
तन्हाई से या चराग से।
जुनून से या उन्माद से।
हकीक़त से या ख़्वाब से।
मगर मेरे ज़हन में हमेशा
प्रेम के अर्थ में सिर्फ़
तुम्हारी छब दिखाई पड़ी।-
माथा चूमकर दिल तक उतर जाऊं।
आ तुझे जी भरकर मैं आज गले लगाऊं।
भुलाकर सभी कुछ, सिर्फ़ तुझमें खो जाऊं।
रुह पर रख दे तू हांथ, तुझे इस दिल में बसाऊं।-