जब कभी भी
पुरुष के किसी
दोष का दण्ड
एक स्त्री को
चुकाना पड़ा है
.
स्त्री ने
सफाई देने से
बेहतर समझा है
आजीवन
पत्थर हो जाना-
भले तुम पर कोई उंगली उठाये, चाहे फैलाये अफवाह सी,
मुझे किसी की परवाह नहीं, तुम हो ही पवित्र पंचकन्या सी!
भले छली हो तुम इंद्र से, चाहे रही प्रेम अभिशप्त शिला सी,
होगा मिलन जब सदियों बाद, हो लोगी पवित्र अहिल्या सी!
होंगे कितने तेरे शरीर के मालिक, चाहे तेरा अपमान हुआ,
पर तू ही होगी मेरी अर्द्धांगिनी, ह्रदय स्वामिनी द्रौपदी सी!
भले ही भूल से संसर्ग हुआ, चाहे मजबूरी से नियोग किया,
पर तुम हो आदर्श जीवनसंगिनी, तुम शीलवती कुंती सी!
भले चाहते तुमको बहुतेरे हो, चाहे कोई ना तेरी बात मानी,
अंतर्मन से तुमने मुझे स्वीकारा, दिल दूरदर्शिता तारा सी!
भले सर्वश्रेष्ठ से प्रणय किया, चाहे सलाह तेरी अनदेखी हुई,
उपरांत सब के मुझे वरण किया, तुम साथ मेरे मंदोदरी सी!
तन का नही है अस्तित्व प्रेम में, ना दिमाग से कुछ होता है,
अहसास की है प्रेमकहानी, मन से, मन सी और मन की सी! _राज सोनी-
करूणा में डूबकर
उसके नेत्रों के प्रकाश पुंज
जब तक छू न लें
तब तक उस पर लिखी गयी
मेरी समस्त
प्रेम कविताएँ
प्रस्तर ही रहेंगी,निर्जीव
अहिल्या की भांति-
सुनो प्रिय...
अपने अहंकार के वशीभूत हो कर
स्वयं ही के दिये हुए शाप से मुक्त होकर
जब तुम चल दिए कर्तव्यों से च्युत होकर
मुझे किसी राम के भरोसे पर छोड़ कर
सत्य कहना..
तुम जानते थे, ना...?
कि..,
कलयुग के राम, नहीं इतने सामर्थ्यवान
जो, पाषाण मूर्ति में जीवन का संचार कर सके।
ना ही शेष है....!
किसी अहिल्या में इतनी जिजीविषा
जिससे प्रस्तर हृदय, पुन: स्पंदन कर सके..!-
दृष्टि से ओझल हो तुम,
हैं नैना पथराये से
झलक तेरी जो इन्हें छू जाए,
ये पत्थर से अहिल्या हो जाये-
महामंडलेश्वरी होने की अतृप्त भाव हृदय लिये जीये जा रही हूँ
परिवर्तनस्वरुप शनै:शनै: शिला अनूप अहिल्या हुई जा रही हूँ-
# "स्वयं को सत्य सिद्ध
करने से बेहतर
समझती है वो
स्वयं का शिला रूप
और उसी में आजीवन
वास करने की उत्कट
अभिलाषा है!
मानसिक कुंठा
प्रदर्शित करने हेतु
इंद्र सम दम्भीपुरुष
उसके शारीरिक पवित्रता
को तो नष्ट कर सकते हैं,
किंतु मानस पटल पर
उसकी अनुरक्ति मात्र
और मात्र गौतम से है,
जिसे उन पर विश्वास
तक नहीं था...!!"¥-
जब लगाए जाते हैं
'लांक्षन' स्त्री 'चरित्र' पर
वह 'धारण' कर लेती है
'पाषाण' रूप
'अहिल्या' की तरह
और करती है 'इंतजार'
'स्थितिप्रज्ञ' पुरुष
'राम' के आने का
जो 'हर' सके
उसके 'मन' की 'जड़ता'
जो कर सके जीवन में
'प्रेम' का पुनः 'संचार'
'सतयुग' की 'अहिल्या'
का तो हो गया था
'उद्धार'
'कलियुग' में कितनी ही
'अहिल्यायें' हैं
कुछ को तो मिल जाते है
उनके 'राम'
कुछ 'ताउम्र' जीती है
'पाषाणवत' जिंदगी
और अन्ततः मिल जाती है
'मिट्टी' में
'राम' के इंतजार में!
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