कोई ख़ास तस्वीर भी नहीं,
कोई ऐसी एक बात भी नहीं
याद तो रोज़ आती है
पर ऐसी कोई तक़दीर ही नहीं
जिसमें आप मेरी तस्वीर नहीं
आख़री बार की बात याद है
उस दिन की पूरी तस्वीर याद है
बोला था आपने साथ में खाओ
क्या पता था ये आख़री मुलाक़ात है
पिरो रखा है आज भी उस दिन को,
जिस दिन आपने कहा बस
“यही आख़री मुलाक़ात है”-
सबसे ख़तरनाक एक अकेला आदमी,
ना किसी से मुह छुपाना,
ना किसी को मुह दिखाना।
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जैसे
पगडंडियां मिल जाया करती हैं
भटकी हुई वीरान सड़कों से
बिछड़ो तो इस तरह जैसे
नदियां खो देती हैं खुद को
समाकर एक अंजान समंदर में-
मैं क्या करती माँ? वो लोग इतने सारे थे..
तरस ना आया उनको मुझपर, सब हवस के मारे थे...
तेरे चाटे से ज्यादा असर मैंने उनकी मार में पाया था..
मैं क्या बताऊ माँ....
उस दिन तेरी फ़िक्र का एक एक पल याद आया था...
गिड़गिड़ाई बोहोत थी चीखा और बोहोत चिल्लाया था...
मुँह रौंद कर उनसब ने मेरी आवाज़ को दबाया था....
मुझे लड़ना है माँ उनसे जो इन्साफ ना होने देंगे...
मेरे घावों को नोचेंगे घाव ठीक ना होने देंगे.....
कातिल बन गए हैँ मेरी रूह के, वो सारे हैवान थे....
वो झुंड में आये गीदड़ थे और कहते खुद को बलवान थे...... *-
एक लड़का था
हर दिन हर हाल में
कहीं बहुत दूर से आकर
अपनी प्रेमिका को
सुबह-सुबह जगाया करता था।
एक लड़की थी
हर समय
किसी और की परवाह न करते हुए
बस अपने प्रेमी के ही
इर्द-गिर्द घूमा करती थी।
उनका प्रेम हर मौसम में
कई प्रकाश वर्षों तक
एक जैसा बना रहा।
तब सृष्टि ने
पुरस्कार के रूप में
असंख्य बच्चे
उनकी गोद में डाले
और ऐसे अमर हो गया
सूर्य और पृथ्वी का प्रेम।-
वक़्त से थोड़ा सा वक़्त छीनकर लाऊंगा,
वक़्त को उस वक़्त की कहानी सुनाऊंगा,
यूं उलझाकर वक़्त को वक़्त की बातोंमें,
मैं हर वक़्त की बात वक़्त से कह जाऊंगा !
देखना हर हाल में मैं हालात को रोक पाऊंगा,
हाल न रुके तो रुकने वाला हालात बनाऊंगा,
मैं हर हाल को हालात के जाल में फंसाकर,
ऐसे हाल का मैं हारने वाला हालात बनाऊंगा !
अब तो हमेशा खुदसे एक दौड़ मैं लगाऊंगा,
यूं दौड़ते हुए भागदौड़ को भी मैं थकाऊंगा,
वक़्त के साथ मैं दौड़ को दौड़ना सिखाऊंगा,
दौड़ते दौड़ते एक दिन दौड़ को भी हराऊंगा !-
माँ मैं बाहर जा रही हूं, यूँ खड़ी हो दरवाजे पे,
लगाए टकटकी घड़ी की और, मेरा इंतज़ार ना करना,
देर बहुत देर हो जाए, और तेरी बेटी वापस घर ना आये,
तो समझना किसी भेड़िये का आज आहार थी मैं,
थी मैं सूट-सलवार में ही पर, माँ घर से तो बाहर थी मैं,
छाती पे रख हाथ तू, आंसुओं का सैलाब मत बहाना,
देख मेरी ऐसी दशा, खुद को दोषी मत बताना,
ना गलती तेरी कोई, ना गलती मेरे कपड़ो की थी,
तूने माँ जनम ही बेटी दिया, जिसकी तन ढके में भी उभरी हुई थी।-
कविता अनुशासनहीन विद्यार्थी है
उसे बंद किताबों की परतंत्रता स्वीकार नहीं
उसे दरवाजों के बाहर ढूँढ़ना
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ग़ज़ल के चंद लफ्जों में तेरी ही बात अब होगी
उन्ही मिसरों में मेरी भी कहीं औकात अब होगी
सियासत है अगर ये चाहतों का रोज़ टकराना
सँभलना ए मेरे हमदम किसी की मात अब होगी.!!
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वो पैदल चलते जा रहा है।
वो अपने गांव जा रहा है।
भूख प्यास उसके संगी हैं।
आज सियासत नंगी है।
उसका गांव में एक मकान है।
ये कैसा हिंदुस्तान है?
ये कैसा हिंदुस्तान है?
श्रमिक वर्ग का ठप्पा लेकर,
सबको अपने संग इकट्ठा लेकर।
उसके नीचे धरती, उपर आसमान है
ये कैसा हिंदुस्तान है?
ये कैसा हिंदुस्तान है?
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