मेरे मन के रेगिस्तान में
मरीचिका तेरे प्रेम की-
दूर हो तुम, पर पास हो तुम।
मेरे दिल की, आस हो तुम।।
लिख चुका हूँ , जो कहानी ।
उस कहानी का, सार हो तुम ।।
हकीकत हो या, ख्वाब हो तुम।
जो भी हो ,पर नायाब हो तुम ।।
जिसे उम्र भर मैं, पढ़ना चाहूँगा।
वो पसंदीदा ,किताब हो तुम।।
चाहत हैं तुम्हारी ,पर सराब हो तुम।
दिल में दफ्न हैं जो ,वो राज हो तुम।।
तुम्हारे बारे में , कहूँ तो क्या कहूँ।।
जैसी भी हो , लाजवाब हो तुम।।
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(सराब-मरीचिका)-
परछाईं,
हर जगह साथ देती परछाईं है
जिंदगी की राहों में,
दिनकर से मुलाक़ातों में,
दीपक के उजालों में,
धूप की मरीचिका में,
चित्रकार के चित्रों में,
परछाईं,
हर जगह साथ देती परछाईं है
गाँव के आलिन्द की,
पेड़ की डाल की,
पंछी की उड़ान की,
भारत के नगराज की,
आसमा के बादल की,
तालाबों में चाँद की,
परछाईं,
हर जगह साथ देती परछाईं है
जिंदगी के अँधेरों में,
अमावस्या की रातों में,
साथ छोड़ देती परछाईं है,
साँस भी एक दिन साथ छोड़ देती है,
ये तो फ़िर भी परछाई है-
ये रेगिस्तान,
ये रेत...ये रेतीली हवाऐं...
सांसों में रेत भर रही..
दम घुटता जा रहा...
गर्म थपेड़े जिस्म जला रही..
होठ सुख गए..गला सुख रहा..
और,
बेमुरव्वत ख़्याल..
मरीचिका बना रहा...-
जीवन की ये मरीचिका है भी या नहीं
कहीं उम्र भर ये पिपासा यूं ही न बनी रहे
और दौड़ते रहे हम निरन्तर
चिरकाल तक
मृत्युपर्यन्त तक
फिर हो जाएं समाप्त
बिना किए रसपान इस जीवन माधुरी का
भटकते रहे बस इसी मरीचिका के पीछे
और वो अमृत जलाशय छूट जाए ,
रह जाए अछूता हमसे
जिसे सब मोक्ष कहते हैं।-
मरीचिका!
आशा की किरण है
भरोसे की पतवार है
आकर्षण की मशाल है
आगे बढने की प्रेरणा है।
मरीचिका !
एक भ्रम है लेकिन
उम्मीद की लौ जलाती है
मंजिल के करीब ले जाती है
रेगिस्तान को सम्भव बनाती है ।
मरीचिका!
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अपनी आशाओं को देने पड़ते हैं
बार-बार भ्रम के छींटें
रखना पड़ता है जीवित,
ये फिर तोड़ने लगती है दम
तो दिया जाता है कभी-कभी
मिथ्या हास्य का सहारा
कि चलता रहे यह क्रम
एक लीक के अनुसार,
आह! जीवन की ये अपेक्षाएँ
जैसे जल-मरीचिकाएँ रेगिस्तान की
मात्र एक वायुमंडलीय दृष्टिभ्रम....
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