इक तिरे ही तो रुख़-ए-रौशन के तसव्वुर से
ख़ुशनुमा होता है मेरा हर इक सवेरा ओ माँ-
रीता मन
शांत नदी सा
पारदर्शी होता है
जिसके तल में
पैठे कई विकृत बेडौल पत्थर
स्पष्ट दिखाई देने लगते है
जो उसकी जीवन यात्रा में
कभी अनायस ही जुड़ जाते हैं
तो कभी आवेशित हो गिर पड़ते हैं
और बना लेते हैं एक गहरा गढ्ढा
अथाह सागर से भी गहरे मन के भीतर
समावेशित होता है जिसमें भावनाओं का
उद्वेलित ज्वार भाटा,जो गाहे-बगाहे
उमड़ पड़ता है पृथ्वी की घूर्णन गति से
नित घूर्णन करते विचारो के वशीभूत होकर
और फिर सूर्य और चंद्र की भाँति
एक लंबी यात्रा चक्र को पूरा करता हुआ
कुछ पल छिपा लेता है स्वंय को
किसी ग्रहण की ओट में..................
........ और फिर अंततः रीतेपन को त्याग
इक छोटे से कंकर(भाव) का स्पर्श पाकर
पुनः स्पंदनशील हो जीवट हो उठता है
असीम आशा एवं उत्साह से परिपूर्ण होकर!-
ओ मिरी प्यारी माँ निगाहों में ठहरता नहीं अब कोई रस्ता
तन्हाई की दहलीज पे बैठी हूँ मैं थामें तिरी यादों का बस्ता
शरारते,शिकवे हर शय अब बेमानी हुई है ओ माँ बिन तिरे
तिरे हिज्र में सफ़हा-ए-ज़िंदगी के कोरे,बेरंग हुए सभी सफ़्हे
ओ माँ वस्ल-ओ-जुदाई आकर ठहर गए हैं दिल में अब मिरे
तिरी यादों से ही दिल में खिल उठते हैं नौ-बहार के रंग सुनहरे
तिरी यादे और शब-ए-तन्हाई संग लगाते कहकहे तोड़ ख़ामोशी के पहरे
तिरी प्यारी सूरत का अक्स आँखों में आज भी मिरी नूर बन आ ठहरे
ओ मिरी माँ सियाह रात की सियाही से अब ये बेकरार दिल मिरा है बहलता
शमीम-ए-रूह-परवर तिरी लोरियो की धुन सी धड़कन की धुक-धुक दिल करता-
शम'-ए-उम्मीद का रौशन चराग़ाँ है ज़ीस्त
ग़म-और-ख़ुशी से 'अलहदा कहाँ है ज़ीस्त-
ख़ामोश ही रहने दो तुम मुझे
शशक्त ऊर्जा का स्त्रोत है मौन
सच-झूठ की मिलावट से
सुसज्जित वाक्यांशो से परे
एकांतवास में निहित
तोष की खोज में
पूर्णतया सहायक नीरवता
शांत नीर सा पारदर्शी हो जहाँ
ऋतंभरा प्रज्ञ सा निर्मल मन
निरपेक्ष हो वह हर मोह बंधन से-
समझ कर क्या ही करना है हर बात हर बार
कई दफ़ा नासमझी भी देती है सुकूँ-ओ-करार
बे-तकल्लुफ़ी बाज दफ़ा दे देती है दर्द बेशुमार
ख़ामोशी ओढना अच्छा होता है कभी कदार
ज़ुबाँ पे नमक रख,शहद की न हो फिर दरकार
नीम ही सही ,सच्ची बात ही होती है असरदार
ज़िंदगी की रहगुज़र में उम्मीद जो हो पतवार
हर तूफ़ाँ से सफ़ीना पार लगा दे परवरदिगार
हज़ारो न सही चाहे एक-दो ही हो ग़म-ख़्वार
हर मुश्किल आसान हो जो संग हो सच्चा यार-
है क्या!
न रहा इसका भी भान!
पाषाण हुई है चेतना!
देह हुई मानो निष्प्राण!
स्वार्थ,निस्वार्थ मात्र शब्द हुए!
बिना मर्म के,जैसे खोज विज्ञान!
उचित,अनुचित! पूरक, संपूरक!
व्यर्थ ही टोह रहे मानो अपना मान!
मुस्कुराहटे,संवेदना,अश्रु सभी तोड़ रहे अभिमान!
बस उलझने ही बाँधे हुए हैं ज़िन्दगी के सभी तार !
वरना तो टूटकर बिखर ही जाते हर दफ़ा कई सौ बार!-
तसव्वुर के सफ़्हे पे
तिरी यादों की कूची से
तिरी तस्वीर बनाती हूँ
तिरे लम्स का एहसास
हर लम्हें में,मैं पाती हूँ
माँ तिरे विर्द में ही तो
तिरी महक मैं पाती हूँ
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