माँ
दोनो
जहाँ
का
सुकूँ
हैं
तिरे
आँचल
में-
नहीं आया हमको शिकस्ता-दिल को रफ़ू करना!!
ग़म-ए-दिल रब के दर बिफ़र पड़ता है दस्त-बस्ता!-
नन्हें ख़्वाबों के बीज होंगे प्रस्फुटित जिस दिन यथार्थ के धरातल पर
मन उपवन में खिल हर्षाएंगे ,हर्षोल्लास के रंग-बिरंगे पुष्प अगणित
किंचित भी संदेह नहीं इसमें सिंचित किया हैं इन्हें कठोर परिश्रम से-
ओ कान्हा मुरली से भी मधुर है तिरी मधुर वाणी
मैय्या कह जो पुकारे मन की मरुभूमि हो जाए धानी-
ओ बांवरे मन
तू भी कैसा मुंजिद हैं
टूटने नहीं देता रब्तगी के भरम
हर सियाह को रौशन करे तू हरदम
ऐ मिरे अल्हड़ मस्त-मलंग बांवरे मन
यूँही सदा संग रहना तू बनकर हम-क़दम
अपनी शफ़्फ़ाफ़ी के रंग में रजना तू हमें उम्र-भर-
कुछ नहीं,कुछ भी तो नहीं
धड़कनें शोर मचाती है यूँही
बेपरवाइयों को घर का पता दो कोई
फ़ुर्सत से कहो आके बैठे कभी यूँही
पौ फटते ही गुम हो जाती है क्यूँ ही
इस दहर में सफ़र हैं, मंज़िल नहीं कोई
ओए सुन तो ओ ज़िन्दगी काहे इतराए तू री
मुसलसल चलती साँसो की मोहताज है तू भी
सुबह घर से निकलो को शाम घर पहुँचाता है शम्स भी
उससा न बन सकों तो लफ़्ज़-ए-सुकूँ बन जाना तू कभी-
जाने क्या हैं मंज़िल इस 'सफ़र-ए-ज़ीस्त' की!
बस इतना पता है चलते रहना ही मुनासिब है!-
मुसाफ़िरी का भी किस्सा अजीब है
कितने ही टूटे इसमें बशर-ओ-दिल
फिर भी कहते हैं हम तो दिल के अमीर हैं
सिफ़र से शुरू सिफ़र पे ही ख़त्म
दुनिया-ए-दूँ का यही तो दस्तूर है-
गुनगुनाती
अल्हड़ नदी
कही समतल
कही पथरीले
ऊँचे-नीचे
रास्तो से
बहते हुए
मिल जाती हैं
अंततः समुद्र में
त्याग कर
स्वयं का
अस्तित्व
अजर-अमर
होने को
अथाह
सागर में
हो जाती
सदा के लिए
विलीन !!-
चंद लफ़्ज़ो में
तिरे मिरे रिश्ते को
बयान कर पाना
कहाँ मुमकिन है माँ
महकती रहती हूँ मैं तो
तेरे महकते नाम की तरह
ओ मिरी प्यारी माँ-