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#लघुकथा_आग
#आगदोहा
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#tearotica
#aagonzindagi
Disclaimer: Words are expres... read more
स्व से स्व का होनेवाला रण बाकी है
मुझमें अहं का कुछ तो कण बाकी है
वानर से नर तो मैं बन गया
पशुओं सा मगर आचरण बाकी है-
Thank you for participating. Those who missed search me in Amazon.
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Waiting for the kinky session.
Submitted to the old master,
who will teach a new lesson.-
न साथी कोई, न ही कोई सहेली
मस्ती में रहती,मैं तो अकेली
समझ ना पाया कोई भी मुझको
बूझती नहीं मैं हूँ ऐसी पहेली
जाने कितनों ने मेरे दिल से है खेला
जाने कितनों के दिल से मैं भी हूँ खेली
टकरायेगी किससे जीवन की रेखा
देखो तो कोई आज मेरी हथेली-
न कोई वजह, न कोई जगह
फिर भी मुस्काऊँ जाने क्यों हर सुबह
मुझसा कोई तुम्हें अब मिलेगा नहीं
कौन चाहेगा तुमको मेरी तरह
किस बात पे रूठी बताया नहीं
कहो कैसे करूँ मैं तुमसे सुलह
तुम्हारी हर हाँ से हाँ मिलाऊँगा मैं
अब ना मैं करूँगा कोई जिरह
तोड़ दो तुम चुप्पी ये गुज़ारिश मेरी
आओ बातें करें बैठ कर हम पुनः-
न तितली चाहिये न सुमन चाहिये
ख़यालों का बस अंजुमन चाहिये
हृदय को हृदय का स्पंदन चाहिये
देह को देह का उबटन चाहिये
साँसों को साँसों की अगन चाहिये
अधरों को अधरों का चुम्बन चाहिये
न भाती मेनका, न कोई उर्वशी
इंद्र को एकाकीपन चाहिये
तन को तन की छुअन चाहिये
मन को मन का आँगन चाहिये
स्व से स्व का हो मिलन जहाँ
वन कोई ऐसा निर्जन चाहिये-
रौनक नहीं है पहले सी, इश्क़ के बाज़ार में
एक फूल भी बिका नहीं, प्रेम के त्यौहार में
हृदय के टुकड़े पड़े मिले, जगह जगह भंगार में
एक फूल भी बिका नहीं, प्रेम के त्यौहार में
नकद मुझे न चाहिये, ले लो तुम उधार में
एक फूल भी बिका नहीं, प्रेम के त्यौहार में
सच्चा प्रेमी गर मिले, दे दूँगी उपहार में
एक फूल भी बिका नहीं, प्रेम के त्यौहार में
सबकी नजरें हैं टिकी, स्वर्ण रजत के हार में
एक फूल भी बिका नहीं, प्रेम के त्यौहार में
नाम काम का जपते सब, अनुपम इस संसार में
एक फूल भी बिका नहीं, प्रेम के त्यौहार में
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