अपना हिजाब उतारकर उसने,
उसे एक हिन्दू के जख्म पर बांध दिया,,
...लगता है उसने कुरान पढ़ी है।-
ताबीज़ में बंधे हिजाब के अक्स हो आप
जो दिल को दे नर्म सुकूँ वो शख़्स हो आप-
मेरी मोहब्बत में बेहिसाबी रह जाने देते हैं,
और उस हिसाब में वो ख़राबी रह जाने देते हैं,
कहीं नज़र न लग जाए यूँ मोहब्बत को मेरी,
मेरी मोहब्बत को भी हिजाबी रह जाने देते हैं।-
नंगों ने हुकुम किया अब
हिजाब पहन कर रहो।।
आंखों से नंगा करेंगे सब
नक़ाब पहन कर रहो।।-
खुद को भरी महफिल में उसने, जो बेनकाब किया,
जैसे चंद सितारों के बीच रौशन, इक माहताब किया,
देखते ही रह गए सब, निगाहें किसी की हटी ही नहीं,
हंसी चेहरे ने उनकी, सूखे फूलों को फिर गुलाब किया!-
हिसाब तो जिस्मानी इश्क का दिया जाता हैं सनम रूहानी इश्क तो अक्सर बेहद बेइंतहा और बेहिसाब होता है...
बिन देखें ही तुझे चाहता हूँ मैं रूहानी इश्क तो ऐसे ही होता हैं न महबूब की बस सीरत अच्छी होनी चाहिए चाहें सनम हिजाब में होता है...-
तेरे चहेरे पर ये जो चेहरा है
उसे नकाब कहुँ या हिजाब,
युँ तो लाजमी सा है ये इश्क भी
क्यों ना लिख दूँ मैं इस पर एक किताब.
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2017 में प्रकाशित असग़र वजाहत की यात्रा संस्मरण पुस्तक 'अतीत का दरवाज़ा' का अंश पढ़ते हैं...
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