समेट रखा है तूफान ख़ामोशियों में बहुत,
यूँ ही अक्सर ये निगाहें नहीं बरसा करती !-
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हर गुनाह की, यहां मिलती है सज़ा और
मांगी थी दुआ और ही, पाया है खुदा और,
इल्ज़ाम मिरे सर और तमाम शोर-शराबे
ख़ामोशी का हमारे भी, अंदाज-ए-बयां और,
निगाहें गुनहगार औ तमाशा-ए-महफ़िल
सारे गुनाह एक है, तबीयत-ए-ज़ुबां और ,
लकीरें चेहरे की बताएंगी, तज़ुर्बे तेरे कितने
हर उम्र में, हर उम्र के, होते हैं निशां और ,
न कर ऐ मुसाफिर गुमांँ तक़दीर पर अपनी
नीचे का जहां और है....ऊपर है जहां और !-
अपेक्षाएं....
अधिक है तुम्हारी
और मैं पूर्णता की प्रत्याशा
लेकिन कई बार मेरे शब्दों की सार्थकता
विलुप्त हो जाती है.... मौन में....,
भ्रम सी प्रतीत होती है..वास्तविकता भी,
तुम्हारी उलझी बातें,
अक्सर उलझा देती हैं मुझे
ढूंढती रहती हूँ उत्तर
अपने मस्तिष्क में घूम रहे प्रश्नों के,
अधिकांशत:
तुम्हारी सोच और मेरी अभिव्यक्ति
मेल नहीं खाती,
क्यों सरल नहीं है जीवन....तुम्हारे साथ....
क्यों नहीं समझते तुम....
संवेदनाओं की अभिव्यक्ति
अपेक्षित होकर, उपेक्षित होना ....
खलता है मुझे,
शायद सच है.....
"स्त्री भावुक होती है"....-
सांस वही, अहसास वही, अश्क-ए-पैमाना कब तक ,
कितने झूठ, कितने बहाने, समय का बहाना कब तक !-
आईना देखते रहना,
अहम ना होगा,
अक्सर..
ऊंचाई पर लोग अपनी
पहचान भूल जाते हैं....-
तू सर्द रातों में जलते अलाव जैसा है,
ठहरे जज़्बातों के धीमे बहाव जैसा है,
जहां ख़ामोशियाँ मेरी ज़ुबां हो जाएं ,
तमाम दूरियों में तू इक लगाव सा है !-
आसमांँ मुट्ठी में भींच आब लिखती हूँ,
मैं आस की ज़मीं पर ख़्वाब लिखती हूँ,
थोड़ी धूल थी जो आँखों में जा पड़ी थी
आज श़हर-ए-तूफ़ां में गुलाब लिखती हूँ,
आफ़्ताब की रोशनी में नहाई सी ख्वाहिशें
शब-ए-वस्ल में नूर-ए-महताब लिखती हूँ,
हथेली में लिए ख़ामोश रात का चिराग
अल्फ़ाजों में लिपटा किताब लिखती हूँ !
'ऐ दीप' जो दिले दरिया को दे पुर सुकूँ
हाश़िए पर वो मौजे इंतिख़ाब लिखती हूँ !-