दीप शिखा   (दीप शिखा)
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Joined 5 July 2018


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Joined 5 July 2018
11 APR 2022 AT 14:22

आसमांँ मुट्ठी में भींच आब लिखती हूँ,
मैं आस की ज़मीं पर ख़्वाब लिखती हूँ,

थोड़ी धूल थी जो आँखों में जा पड़ी थी
आज श़हर-ए-तूफ़ां में गुलाब लिखती हूँ,

आफ़्ताब की रोशनी में नहाई सी ख्वाहिशें
शब-ए-वस्ल में नूर-ए-महताब लिखती हूँ,

हथेली में लिए ख़ामोश रात का चिराग
अल्फ़ाजों में लिपटा किताब लिखती हूँ !

'ऐ दीप' जो दिले दरिया को दे पुर सुकूँ
हाश़िए पर वो मौजे इंतिख़ाब लिखती हूँ !

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30 NOV 2019 AT 18:10

नहीं थमती दासतां, जिस्म-औ-रूह ज़ार करने की,
और बाकी है क्या, दरिंदगी की हद पार करने को,

आग फिर उठी हैं, अंगारे दहके हैं आज, चारों तरफ
काट दो उंगलियाँ, जो उठे इज्ज़त तार करने को,

वो बेटी किसकी थी, मत पूछ मुझसे ऐ रहगुज़र
तैयार रह, उन नामुरादों के टुकड़े हज़ार करने को!

आबरू जाने कितनी, हर रोज़ कुचली जाती हैं,
नोंच ले वो गंदी नजरें, उठे जो गंदे वार करने को,

क्यों हो झिझक, क्यों डर बेटियों की आँखों में,
ज़रूरत अब, खुद हाथ अपने हथियार करने को !

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23 APR 2019 AT 17:10

आश्वस्त होना स्वयं की छवि से
बहुत कठिन है
मानव प्रवृत्ति है उलझा होना
शाश्वत और शांत जीवन
कल्पना मात्र है
युग ही है
संवेदनाओं को कचोटने का
टटोलना अंत:करण
संभावनाओं के प्रति
अपेक्षित होना
उपेक्षित होकर भी
लालसा की अनुभूति करना
निश्चित रूप से आज
जीवित होने का प्रमाण है !

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4 APR 2019 AT 8:55

खूबसूरत सुबह का कुछ तो असर आए,
कि हम याद करें और उनको हिचकी आए !

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29 MAR 2019 AT 21:28

छोटी सी जिंदगी को किश्तों में बाँट लेती हूँ,
औरत हूँ तकलीफ़ भी हँसकर काट लेती हूँ,

महक उठती हूँ अक्सर मोंगरे के गजरे सी
गुजरती हवा की खुशबू समेट साथ लेती हूँ,

किलकारियों में ढूंढ लेती हूँ सुकून अपना
बच्चों की मासूमियत में गुज़ार रात लेती हूँ,

चूड़ियों की खनक, पायल सी छनकती हूँ मैं
आँखों के काजल तले छुपा बरसात लेती हूँ,

कुछ ख्वाब बिखरे मिलते हैं हर रोज़ रसोई में
मिलती-जुलती ख़ुशी तरतीब से छाँट लेती हूँ !

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17 MAR 2019 AT 13:33

रंग बिखरा है चमन में हर तरफ देखो,
नहीं जानती ये ज़मी ं भेद धर्म का करना !

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21 FEB 2019 AT 8:49

आज फिर हवा का रुख बदलते देखा
आँखो में नया प्रतिशोध पलते देखा,

दबी देखी निशानियाँ हमने अपनों की
बहते आँसुओं से चिंगारी निकलते देखा,

दिल और आग हो गया जब हमने
धुंए में शहर-ओ-शहर मिलते देखा,

कसूर कोई नहीं था मासूमों का लेकिन
बलि आतंकवाद की उनको चढ़ते देखा,

आज फिर उस राख से धुआँ उठता है
खुशियां थी जहां चिताएं भी जलते देखा,

कर लेते हैं लोग मौत पर भी राजनीति
यहां बाद तबाही के हाथ मलते देखा,

वो ज़हर बो रहे हैं और ज़हर ही काटेंगे
देखा जब भी उनको ईमान बदलते देखा !

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7 JAN 2019 AT 17:48

तजुर्बा जिंदगी का मेरे कुछ काम न आया,
मासूम बचपन को जब डर के साए में पलते देखा !

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27 DEC 2018 AT 9:23

पर्दे में छुप के हया बोलती है
जुबां नहीं आंखों से बात कहने दे,

ना खोल अपनी बाहें आसमां की तरह
मुझे धीमे-धीमे ही आज बहने दे,

इकरार मेरा दिल भी जानता है मगर
लफ्ज कुछ अनकहे ही रहने दे,

दर्द दूरियों का खूबसूरत नहीं होता
कुछ तो इस नाचीज़ को भी सहने दे,

ना पंख दे मेरे अरमानों को आज
मैं मिट्टी हूंँ मुझे जमीन पर ही रहने दे !

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18 DEC 2018 AT 15:46

दिल कभी सहरा कभी बरसात हुआ करता है,
वो आए तो रौशन वरना घनेरी रात हुआ करता है,
ना पूछ मुझसे दिले जज्बात उमड़ने का सबब,
यूँ ही कभी-कभी दीवाना ये बेबात हुआ करता है !

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