रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
[ तुलसीदास ]-
रावण :
कितनी बार बेरहमी से मरे हुए को जलाओंगे,
अपने भीतर झांकोगे तो एक नहीं अनेक पाओंगे।
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स्त्री की परिकल्पना सीता है
समाज रूपी लक्ष्मण ने
खींची रेखा है
राम और रावण पर
पुरूषों का अधिकार है
स्त्री को चलना
उसके अनुसार है
मैंने हर पल खुद को
नियंत्रित देखा है
नहीं बन सकी राम और रावण
मेरी आत्मा में सिर्फ सीता है
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महिषमर्दिनी हो तुम
शुंभ निशुंभ विदारिणी हो तुम,
सभी संकटों की निवारणी हो तुम
काली हो तुम
रक्तबीज संहारिणी हो तुम
इस जग की कल्याणकर्ता
दुर्गा महारानी हो तुम..-
मन में रावण और मुख में राम बैठे हैं
भक्त कहाँ हैं? सब तो भगवान बैठे हैं।
पाप और पुण्य का निर्णय कौन करे?
यहाँ तो मंदिरों में भी शैतान बैठे हैं।-
इस विजयादशमी स्वयं राम बनकर,
अपने भीतर पल रहे
लोभ,मोह,
क्रोध, ईर्ष्या,
द्वेष,अहंकार,
काम, वासना,
स्वार्थ,
नकारात्मकता
रूपी रावण का दहन कर
अपने तन- मन को आलोकित करे !!!
🏹 विजयादशमी की शुभकामनाएं 🏹-
"विजयादशमी का दिन"
आज 'पाप' पर 'पुण्य' के 'विजय' का 'दिन' है,
'अन्याय' का 'न्याय' से 'पराजय' का 'दिन' है|1|
क्यों बस आज के दिन ही जलाया जाता है रावण,
पाप का अंत तो 'अभि' हर दिन होने वाला दिन है|2|
क्यों जो धनी हैं वो एकदम अछूता है आर्थिक मंदी से,
क्यों बस वहीं बेबस-लाचार हैं जो कमजोर-दीन है|3|
जो यहाँ मेहनत करता है वो बस पसीना बहाता हैं,
और जो करता बेईमानी उड़की दुनिया हसीन है|4|
क्यों हम उस दशानन को ही जलाते हैं हर साल,
क्यों अपने अंदर के रावण को छिपाने में हम लीन हैं|5|
थी सुरक्षित सीता रावण की वाटिका में अकेली भी,
पर आज तो अपने घर में बेटियाँ भयभीत-गमगीन हैं|6|
कहने को तो है रामराज हमारे इस कथित समाज में,
लेकिन आज भी धड़ल्ले से हो रहे यहाँ कांड संगीन है|7|
मना लो तुम विजयादशमी का त्यौहार मन मारकर,
मेरे लिए तो हर दिन इंतज़ार ए इंकलाब का दिन है|8|
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सभी को मेरी तरफ से
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
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रावण बैठा मन के अंदर
बोलो राम कहाँ से लांऊ !
अंतःद्वन्द एक ज़ारी भीतर
किसे जिताऊं किसे हराऊं!
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