PraGati PaNdeý   (Praगति✍️)
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शब्दों की कमी है🙏
Joined 12 January 2018


शब्दों की कमी है🙏
Joined 12 January 2018
8 SEP 2022 AT 5:29

जिस क्षण
आप 'स्वयं की खोज' में निकल जाते हैं,
उसी क्षण
आपके लिए समाप्त हो जाती हैं,
वापसी की सभी संभावनाएं;
आप को खोजना एक अनवरत प्रक्रिया है।

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1 AUG 2021 AT 21:46

पिछले पाँच दिनों में शरीर का तापमान 103° के करीब पहुँच चुका था। घर से दूर रहते हुए 4 साल हो गए हैं लेकिन घर से दूर होने का इतना गहरा एहसास आज से पहले शायद ही कभी हुआ हो। आज पहली बार अनुभव कर रही हूँ कि दिल्ली सच में कितनी दूर है।
कमरे का सारा सामान अस्तव्यस्त है। स्टडी टेबल पर किताबों से ज्यादा दवाईयों के लिफ़ाफ़े पड़े हैं। फ़र्श पर दवाईयों के खाली रैपर, सिरप की खाली शीशी, दो-चार जूठे बर्तन, गर्म पानी की बोतल..सब के सब अव्यवस्थित रूप से बिखरे हैं। आख़िरी बार जिस किताब को पलटकर जिस तरह रखा गया था, जिन पेन और हाईलाइटर्स को इस्तेमाल करने के बाद भूलवश ढक्कन खुला छोड़ दिया गया था उसी तरह अपने स्थान पर पड़े हैं।
सुबह होती है, बिस्तर की गर्माहट को छूकर पता चलता है कि आज भी कोई सुधार नहीं हुआ। काँपती हुई आत्मा बेजान शरीर को जबरन उठाती है और बाथरूम के दरवाज़े से भीतर धकेल देती है। पानी के प्रत्येक स्पर्श से मानो देह छलनी हुआ जाता है।
"कैसी हो तुम? अभी ठीक हो न?"
बेहोश शरीर से आवाज़ निकलती है,"हाँ-हाँ, ठीक हूँ।"
सन्नाटा..!
बच्चों के खेलने की आवाज़ें कर्कश लग रहीं हैं। एलेक्सा के गाने कानों को लगातार चुभ रहे हैं। आँखें बंद, देह सुन्न, दिमाग कहीं दूर किसी छोर पर..
"सुनो, ये लो अदरक वाली चाय लायी हूँ। सारी पी लेना, फेंकना मत। चीनी कम लगे तो डाल लेना।"
आँखें टेबल पर रखी चाय को एकटक देखतीं हैं।
सन्नाटा..!

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23 JUL 2021 AT 20:54

a ब्राइट फ्यूचर

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23 JUL 2021 AT 20:50

तक़दीर को मुट्ठी में करने की कोशिश करती मैं

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19 JUL 2021 AT 17:37

तुम जिसे छल रहे हो, वो तुम्हें छल रहा है।
यहाँ देवता के मन में भी शैतान पल रहा है।

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15 JUL 2021 AT 13:56

"संसार की
प्रत्येक स्वाभाविक प्रक्रिया को
विशेष बना देने की अद्भुत शक्ति है हममें,
यहाँ असाधारण कुछ भी नहीं।"

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10 MAY 2021 AT 14:29

मृत्यु निकट है,
और नया जीवन भी।

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23 MAY 2020 AT 15:17

किसी को
मारने के लिए
उसे मारने की क्या ज़रूरत?
निकालो
हथियार शब्दों के
और छलनी कर दो उसकी आत्मा को।

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22 MAY 2020 AT 20:25

"मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।"

-सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

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14 MAY 2020 AT 16:35

माटी के हो, माटी के हो जाओगे
मौत आने से कुछ नहीं बदलता

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