घड़ी को समेटकर, आज जो वक़्त लेने आई उसका
जैसे ही बैठी पास उसके,
मानो दूर होकर हमसे, मुँह हो लिया अपना लटका
बड़ी ही नाराज़गी से वो पेश आए थे, हम भी तो थे कसुरवार
इतने पहर बाद जो वक़्त तिखला कर आए थे
कभी सुबह, कभी साँझ, कभी चढते सूरज में भी उसे तलाशना चाहा था
पर, फिर वही दूसरे राह का बुलावा, बस फ़ासला थमा गया था
कभी जो बैठे कलम काग़ज़ लेकर, सोचने उसे
कुछ एक रूप लिखा ही था उसका, फिर वो चिढ़ाते दूर भागते चले गए
आज वही पुराना अपना उससे तुक जोड़ना चाहा,
मेरी आँखों का अल्फ़ाज़ है वो, उसे बस यही समझाना चाहा
बग़ैर उसके मेरी सोच की कोई पहचान नही,
"शब्द" "लेख" है उस ख़ास दोस्त का नाम मेरा
इस बात से ये काग़ज़ कलम ये सोच, वक़्त का पहिया भी अनजान नहीं
भले ही कम मिलना जुलना होता है, आजकल अभी
पर थोड़ी न! "लेख" से दूर हो पाऊँगी कभी...
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