नया नया पहलू लाता है, जग का रूप नया गढ़ता है।
अपने तन का मोल चुकाकर ,मानव का मन कवि बनता है।
(कैप्शन में पढ़ें पूरा गीत)-
मन की भी एक देह होती है निविया
जो यदाकदा स्पर्श की भूखी होती है
-
कांच के बाहर की परत
मुझ जैसी है।
बूंद जैसी तुम
छूकर गुजरती रहती हो।
न तुम रुकती हो,
न मेरा मन भरता है।-
स्त्री के मन को समझना उतना ही मुश्किल है जितना पुरुष के प्रेम की गहराई को समझ पाना..
जब तक स्त्री अपना मन और पुरूष हाथ, "थामे" रखते हैं उन दोनों से ज़्यादा भावुक और समर्पित कोई नहीं होता....
लेकिन जिस दिन मजबूत होकर स्त्री अपना मन आज़ाद और पुरुष प्रेम करना, "छोड़ते" है, दुनिया की कोई भी ताकत दोनों को ही, वापिस बंधन में नहीं बांध सकती...!-
सुनो ....
एक बात पूछनी थी ...
मन की आँखें होती हैं क्या ... ?
अगर होतीं ..
तो शायद ... तुम भी देख सकते...मुझे ...
तुम्हारा इंतज़ार करते हुए
एक मन .. तो तुम्हारे पास भी है ... है ना ...
..
मेरे हिसाब से ..
मन की आँखें नहीं होतीं ...
मन के पास सिर्फ़ एक... मन होता है
जिससे वो सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस कर सकता है ..
किसी के होने या ना होने का ...
..
जैसे ..
अपने क़रीब होने ..ना होने का महसूस कर सकती हूँ .. तुम्हें मैं ...
जैसे ..
अपने क़रीब होने का महसूस कर सकते हो .. मुझे .. तुम !
©LightSoul-
इक रोज़ मन उखाड़ा गया
और रख दिया गया
घर के चबूतरे पर
रखे रखे सूखते मन को
बादल की एक टुकड़ी से
बरसी बारिशों ने भिगो दिया
मन में कोपलें जगीं
और मन बाजरे में बदल गया
उस सुबह कुछ गौरैया आईं
और मन को चुग गईं
अब मन आकाश में उड़ता है
उजड़े हुए लोग सदा बरबाद नहीं होते
बस कुछ नए रास्तों की खोज में उड़ जाते हैं-
किसी सड़क पर
और
घने जंगल में नहीं,
ना ही,
किसी गहरी खाई में गिरे
जीव की तरह ...
मैं मिलूँगा तुम्हें,
तुम्हारे ही
मन की दीवार पर,
सिर रखकर
फ़फ़क-फ़फ़क कर रोता हुआ
चीखता हुआ
और कराहता हुआ.....
गाँव के
किसी
उदास कुँए की तरह!-
मन...
पवित्र भी मैं
पाप भी मैं
शांत भी
अशांत भी....
पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें...-