मैं इस कमरे से उस कमरे की तरह
कभी-कभी
इस जन्म से उन अनेक जन्मों तक
घूमने लगती हूँ।
हर जन्म कुछ बिखरा छोड़ आई,
सब समेटते - समेटते अब थक गई हूँ।
इस बार सब अच्छे से समेटना है,
कुछ भी बिखेर कर नहीं जाऊँगी।
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दुनिया के तमाम भुलावों से
खुद को निकाल कर ले जाना है,
अपनी जिंदगीं के रंगों को
बदरंग होने से बचाना है।-
बहुत बार भूल जाते हो तुम खुद को
तब तो बहुत हल्का महसूस होता है।
फिर तुम खुद को ढ़ूढ़ते हो दूसरे में, तीसरे में
और फंसते चले जाते हो,
कहीं भी तुम जो नहीं मिलते
और फिर एक दिन फूट फूट कर रोते हो।
अब जब खुद को ही भूल चुके हो तो
किसी के घर किराए में रहते हो,
खुद का घर भूतों का डेरा हो जाता है
और एक दिन जब याद आता है अपना घर,
समय बीत जाता है,
अब फिर एक बार खुद के साथ ही बैठकर
खूब रोते हो और फिर खुद को ही पुचकारते हो।
तुमने पा लिया खुद को, अब तुम कभी नहीं भटकोगे।-
वो अच्छा तो बहुत है..
बस मैं दूध की जली हूँ,
मट्ठा भी फूंक कर पीती हूँ।-
कितने अनमोल हो तुम,
पहचानो खुद को।
बर्बाद मत जाने दो
अपनी ऊर्जा को।
अपनी रचनात्मकता को विकसित करो,
संवारो पल पल को और जीवन को।-
कुछ ऐसा हो जाता,
कभी बजाता काॅल बेल कोई,
कभी फोन बज जाता।
शब्द मेरे हो जाते गायब
याद न फिर कुछ आता,
सोच - सोच कर थक जाती पर
भाव न फिर जग पाता।-
मौसम धूल की परतें
जमा रहा।
यही धूल की परतें तो
हटानी है हर बार...
मन से,
जीवन से
अपनेपन से।-
इतने डर कहाँ से पैदा होते हैं?
हम कितने डर में जी रहे हैं।
मानसिक अस्वस्थता में जी रहे,
रोज़ कितनी अगरबत्तियाँ जला रहे,
भगवान के सामने बैठकर रो रहे।
ये जो रो रहे सभी अच्छे लोग हैं,
इनके मन में भय पैदा वही कर रहे
जो नहीं चाहते कि अच्छाई बची रहे।
बुराई के पोषक अच्छाई बर्दास्त नहीं कर पाते।
इन बुरे लोगों का इस होलिका दहन में अंत हो।-