Ananya Siddharaj   (अनन्य सिद्धराज)
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Joined 22 May 2017


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10 FEB 2020 AT 18:35

प्रेम

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7 NOV 2019 AT 11:12

जब
स्मृतियों में
मन्दी का दौर हो
और
माथे की
प्रत्येक रेखा
बनाती हो
अवसाद की टेढ़ी-मेड़ी
पगडण्डी

तब चाहूँगा
उभरकर आए
थकी हुई
आँखों में
तुम्हारे प्रथम आलिंगन की
मुस्कान

मैं अभी
शब्दों
पर विश्वास
करता हूँ
परन्तु
तब तक
झर चुके होंगे
हमारे
सारे
शब्द ......

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12 JUL 2019 AT 10:10

किसी सड़क पर
और
घने जंगल में नहीं,
ना ही,
किसी गहरी खाई में गिरे
जीव की तरह ...

मैं मिलूँगा तुम्हें,
तुम्हारे ही
मन की दीवार पर,
सिर रखकर
फ़फ़क-फ़फ़क कर रोता हुआ
चीखता हुआ
और कराहता हुआ.....

गाँव के
किसी
उदास कुँए की तरह!

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17 JUN 2019 AT 22:40

अब मैं पाता हूँ कि मैं सभी से छूट गया। ना...... किसी ने मुझे छोड़ा नहीं और न ही मैंने किसी को छोड़ा। बस लोग नयापन चाहते रहे और मैं पुराना, भ्रांति के कीचड़ में सना हुआ और अतीत की गर्द में लिपटा। मेरी सहजता समाप्त होती रही, धीरे-धीरे। पहले जैसा सहजता का भाव ख़त्म हो गया सभी के साथ। सहजता का घटता क्रम ही, छूटने की हरी झंडी होती है और मैं दुर्भाग्यवश उस झंडी तक पहुँच गया। वक़्त कितना निष्ठुर है ना, ठहरकर अफ़्सोस भी नहीं करने देता, अपने ही प्रिय जीवन पर।

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25 MAY 2019 AT 12:00

मनुष्य कभी-कभी बहुत असहाय हो जाता है। उस वक़्त वह रोना चाहता है, ख़ूब रोना चाहता है लेकिन मन का ताप सारे आँसुओं को जला देता है, कुछ बचता ही नहीं चारों ओर एक गहरा उदास सन्नाटा और उसमें स्मृतियों की साँय-साँय करती हवा। वाष्प की तरह पुतलियों पर तैरता अन्धकार। घुटन के विशाल समन्दर के किनारे बैठा मनुष्य उस समन्दर की प्रत्येक लहर के साथ उस में ख़ुद थोड़ा-थोड़ा छूट जाता है और फ़िर एक दिन अकस्मात् मिलता है शांत चेहरा, थकी आँखें और जीवन की यातनाओं की चादर में लिपटा हुआ एक शरीर ....... वही हँसते चेहरे वाला, खिलखिलाता हुआ, एक समय पर तुम्हारी ज़िंदगी में रहा हुआ सबसे ख़ास, तुम्हारा प्रिय मनुष्य!

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16 MAY 2019 AT 10:55

नदी

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11 APR 2019 AT 10:06

ज़िंदगी

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27 MAR 2019 AT 8:43

अतीत

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6 MAR 2019 AT 14:22

उन्होंने नोच डाली
आँखों की मासूमियत

कुचल दिया
तोतली बातों को

मस्तिष्क को फोड़-फोड़कर
चढ़ाई उसपर
दुनियादारी की झूठी परत

फ़िर उनके
आँसुओं पर नृत्य करके
दबा दी उनकी चीख़
दंगो और जुलूस की ऊँची आवाज़ों में

चौराहे!
आत्महत्या का प्रतीक हैं.....

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3 NOV 2018 AT 22:47

स्त्रियाँ स्वीकारने में निपुण होती हैं...
वे स्वीकार लेती हैं
सब-कुछ
बड़ी ही सहजता से
कि वे परायी हैं
अपने ही माँ-बाप की
और न ही वो कभी हठ करती हैं,
माँ की मृत्यु पर
पिता के साथ ठहरकर
उन्हें ढांढस बाँधने की
और न ही पिता की मृत्यु पर
माँ के आँसुओं को अपने दामन में समेटकर
उसके साथ कुछ वक़्त बिताने की
मृत्यु के बाद
लौट जाती हैं बेटियाँ
द्वार से ही
एक टीस के साथ
कि मरने के बाद
घर वालों के सिवाय कोई बाहरी नहीं ठहरता घर में...

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