था तुलसी का एक छोटा पौधा
मुंडेर पे जलता दीया
और बालों में तौलिया लपेटे बहु,
भूलती नहीं थी एक लौटा जल
तुलसी को देना,
कल रात दीये से आग भड़की
और जली केवल 'बहु';
अख़बार सिर झुकाकर ये खबर
सुना रहा था ।
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बाबूजी ने
नींव की पहली ईंट
रखी थी अपने हाथों से
(पूरी कविता पढ़ें अनुशीर्षक में)-
नहीं होती रखवाली,
जंग लगा ताला अब बेजान है
घर तो नहीं है,
बस यादो का एक मकान है-
बड़ी देर से रहते आये हों इस दिल के मकान पर,
क्या एक मुस्कुराहट तक नहीं दोंगे किराए के तौर पर।-
"अपनी जगह पर" लगती सही, तुझे विज्ञान है ना,
इंसानियत की जहां कद्र नही ,तू वही इंसान है ना।
यहां जज ,गवाह ,वकील ,सब तुम्हारे ही प्यादे हैं,
उसी नाकामयाब कानून का, तू पहचान है ना।
दर्द और मर्ज दोनों तुम्हारे ही हैं ,इस पूरे शहर में,
नींव जिसकी भ्रष्टाचार है , तू वही मकान है ना।
हौसलों के पंख कुचलकर, उड़ा दिया उस पंछी को,
फिर भी मिली नाकामी जिसे, वही अभिमान है ना।
उजाड़ रखे है तुमने सारे , प्राकृतिक सुंदरता को ,
भुगत रही है दुनिया जिसे ,तू वही अंजाम है ना।-
शोर भरी धुन से भाग जाया करती थी जो,
नन्हा कमरा विराने के गीत सुनाता है उसको ।-
हम तो उस, पुराने मकान, से है.....,
जिसे लोग, दूर से ही देख, चल देते।
काश! उस इंसान ने, इफ़ाज़त से हमें, रखा होता,
तो शायद! अभी, हम में , कई खुशियाँ, बसती।।-
मैंने घरों को मकान बनते देखा है,
जब से एक घर को चार होते देखा है।।
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