एक दिन कलम चलाऊंगी
उसकी धज्जियाँ उड़ाऊंगी
क्या किया उसने भरोसे का
हर एक को बताऊंगी-
भूल गए हो मुझे कभी याद तो करते नहीं,
याद आ भी जाए कभी बात तो करते नहीं!!
थी कभी हमारे बीच भी एक गहरी दोस्ती,
है अभी भी मगर कभी अपना तो कहते नहीं!!!-
छोटे और छोटी,
मैं इतना बड़ा तो नहीं हुआ कि तुम्हें कुछ सिखा सकूँ,पर इस छोटी सी जिंदगी से लड़ते लड़ते उसके सामने डट के खड़े रहने का हुनर सीख गया हूँ । जहां भी रहना उस जगह से कुछ न कुछ सीखना जरूर क्योंकि जगहें जितना सिखाती हैं उतना इंसान नहीं सिखा सकता,हर जगह की खासियत को महसूस करके उसे खुद में आत्मसात करने का प्रयास करना।प्रतिकूलता स्वीकारना,यही वो समय है जब बुद्धि को विकसित होने का मौका मिलता है।हमेशा प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए तैयार रहना क्योंकि जो प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए तैयार रहता है उसी के लिए परिस्थितियां अनुकूल होती हैं। कभी हारने से डरना नहीं पर जीत के लिए संघर्ष जरूर करना और हां संघर्ष आया हुआ नहीं स्वीकारा हुआ होना चाहिए।अगर कहीं अधिक समय तक टिकना हो तो हमेशा साध्य और साधन दोनों पवित्र चुनना।कभी कृतघ्न न होना कृतज्ञ रहना,यही फर्क है आदमी और इंसान में । हमेशा हंसते रहना क्योंकि ये हंसी ही तो है जो हमें जानवर से अलहदा पहचान देती है।ये सोचकर काम करना कि वित्त मेरा है न कि मैं वित्त का ,ये मानते रहोगे कि वित्त मेरा तो वित्त तुम्हारे पीछे भागेगा और जैसे ही ये माना कि मैं वित्त का तुम खुद वित्त के पीछे भागने लगोगे।
दूसरों पर आक्षेप के बजाय अपनी भूल स्वीकार करना सीखना। किसी से भूल भी हो तो उसे क्षमा कर देना और किसी के लिए कुछ करना तो निःस्वार्थ वृत्ती से।-
गर चाहत जिस्म की होती तो कब का छोड़ देते हम,
मगर ये भूल मेरी थी जो तुमसे इश्क़ कर बैठे......!
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گر چاہت جسم کی ہوتی تو کب کا چھوڑ دیتے ہم،
مگر یہ بھول میری تھی جو تمسے عشق کر بیٹھے..!
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मैं उस से एक इल्तिजा किया करता था
वो मुझे फ़िर भी रूसवा किया करता था
इश़्क में उसके गिरफ़्तार हो गया था मैं
बिना गलती के ही तौबा किया करता था
उसका हो गया था ये मालूम नहीं मुझको
पर इश़्क उससे बा-ख़ुदा किया करता था
उसकी गली में जाते ही इक मुस्कान आती
अपनी नज़रों को मैं फ़िदा किया करता था
भूल ही गया मैं वो सब 'जो हुआ सो हुआ'
उसके इश़्क से ख़ुद को जुदा किया करता था
उसके हुस्न का इस कद्र ख़ुमार चढ़ा "आरिफ़"
ख़ुद उसको भी मैं ख़्वाबीदा किया करता था
"कोरे काग़ज़" की तरह पाक था चेहरा उसका
यही कहकर बाहों से अलाहिदा किया करता था-
कभी कभी ,
किसी शहर के बारे में ,
हम केवल इतना जानते हैं,
कि वहाँ शाम प्यार के नाम हुई थी ,
जो हम कभी नहीं भूल सकते ।।
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भूला दोगी कैसे कि मैं,
कोई परिंदा परदेशी नहीं,
कतरा कतरा घुल गया हूँ,
तेरे जिस्म में, तेरी साँस में।
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