Anubhav Bajpai   (अनुभव)
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Writer | Director
Joined 6 December 2016


Writer | Director
Joined 6 December 2016
1 MAR 2022 AT 22:56

यात्राएँ भूला
प्रवास भूला
जीवन नाक़ाम
रस्ते तमाम भूला
अब आराम भूल गया

नौकरी याद रही
झगड़े याद रहे
पैसे याद रहे
प्रेमिका याद रही
बीमारियां तक याद रह गयीं

याद रखने के क्रम में
याद रखी बात भूल गया
भूलने के क्रम में
भूल गयी बात याद रखी

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21 FEB 2022 AT 18:21

भाषा से बोली या बोली से भाषा
बोली भी भाषा या बोली ही भाषा
खेलवना भी जाने अउ जाने गजोधरा
कि भाषा है बगिया तो बोली है भंवरा

वो अवधी में बोलें या ब्रज के ही हो लें
बिंदी लगावैं टिकुलिया लगावैं
हरे राम बोलैं या निर्गुन सुनावैं
उनकी है श्रेणी गँवारन की रेड़ी
पिये चाहे सिगरेट या खइचै वी बेड़ी

न भाषा न बोली, न बोली न भाषा
न उनकी अता है, न उनको पता है
अउ जिनको पता है वो सब लापता हैं
भाषा भी आशा है बोली भी आशा
साहित्यकारों की अपनी निराशा

खेलवना भी जाने अउ जाने गजोधरा
कि भाषा है बगिया तो बोली है भंवरा

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24 AUG 2021 AT 21:38

.......

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7 JUL 2021 AT 9:20

ठीक से याद नहीं; शायद एग्जाम चल रहे थे। इसलिए उस दिन स्कूल जल्दी छूट गया था। बस से उतरा दुकानों पर भीड़ लगी थी। पता चला, आज भारत-पाक का मैच है; और कोई धोनी है, बहुत मार रहा है। छक्के तो कमाल के मारता है। फिर बच्चा होने का फ़ायदा उठाया भीड़ में घुसकर सबसे आगे पहुँच गया। देखा क्या, धोनी का शतक पूरा हो गया था वो 148 रन पर खेल रहा था। मैं जैसे पहुँचा, धोनी कैच आउट हो गये। उस दिन बहुत दुःख हुआ था। सोच रहा था शायद मैं न गया होता तो धोनी आउट न होता। एक बच्चा जिसने पहली बार धोनी को सिर्फ़ आउट होते देखा था उसके खेल से प्रेम कर बैठा। 

(पूरा लेख अनुशीर्षक में)

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6 APR 2021 AT 21:16

याद मन बाँध देती है। जब आती है, मन में और कुछ नहीं आता। सिर्फ़ याद आती है। पहले मन के कोरे कागज पर याद का एक बिंदु उभरता है। धीरे-धीरे कागज बिंदुओं से भरता जाता है। एक समय बाद बिंदुओं की सघनता में पहला बिंदु खोजना मुश्किल हो जाता है। जिस याद ने सैकड़ों यादों को जन्म दिया, खो जाती है। जननी का खोना कितना कष्टप्रद होता है। मन जननी की खोज में निकलता है। किन्तु पहली याद से जुड़ी यादें जननी को सोख लेती हैं। जननी याद कौन सी थी, किसी व्यक्ति की, वस्तु की या स्थान की याद; यह तक खो जाता है? यदि मन में उभरी यादों के नोट्स बनाये जाएँ, और बिंदुवार अलग-अलग यादों को लिखा जाए। शायद सम्भव है, पहली याद तक पहुँचा जा सके। इसमें एक ख़तरा है, रातें ख़राब होने का। क्योंकि सिर्फ़ अच्छी यादों के नोट्स बनाये जाएंगे, इसका आश्वासन देना सम्भव नहीं है। नोट्स बनेंगे तो मन का मैल भी शामिल होगा। इसलिए भावनात्मक रूप से यह बहुत कठिन और निचोड़ने वाला होगा। यादों के उद्गम तक पहुँचा कैसे जाए? अगर जल्दबाजी न की जाए और मन को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए। तब मन खुद उस पहली याद को फिल्टर करके आप तक पहुँचाएगा। इसके लिए धैर्य चाहिए। क्या ऐसा सम्भव है कि मन को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए। थोड़ा मुश्किल है। ऐसा एक बार में नहीं होगा। इसके लिए कई महीने लग सकते हैं। क्या हम इस भागदौड़ में, इतना समय ख़ुद को परिष्कृत करने के लिए खर्च सकते हैं।

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3 DEC 2020 AT 14:05

नानी की याद में
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जब तुम गयीं
मैं भी चला गया तुम्हारे साथ
मेरा नाम तुम्हारे साथ चिता में जलकर राख हो गया
तुम्हारी अस्थियों के साथ मेरी पुकार गंगा में बहा दी गयी
अब मुझे कौन पुकारेगा
कौन पुचकारेगा
कौन गले लगाएगा
किसकी छाती में इतना प्रेम बचा है
जो मुझे तुम्हारा आलिंगन दे सकेगा

मैंने तुम्हारा आलिंगन
चिता से उठती लपटों के साथ जल जाने दिया
तुम जल रही थीं 
सबको उस लपट की गर्मी महसूस हो रही थी
और मुझे उस लपट में तुम्हारे आलिंगन की

तुम गयीं
मेरा सम्बोधन लेकर चली गयीं
मेरा, एक जीवन लेकर चली गयीं
मेरे पास क्या बचा
तुम्हारी स्मृतियाँ
वो भी 
जितनी जलती चिता से मैंने खीच ली थीं
ख़ैर,
स्मृतियाँ भी कहाँ नयी रहती हैं

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1 JUL 2020 AT 13:50

कभी-कभी किसी से ख़ूब बात करने का मन करता है। आपको जो भी मिलता है आप उसे पकड़-पकड़कर बतियाने लगते हैं। एक दिन आप बोलते-बोलते थक जाते हैं और बोलना बन्द कर देते हैं। आपका किसी से बात करने का मन नहीं करता। यहाँ तक कि आप दूसरों को जवाब देना भी बंद कर देते हैं। आप उन्हें इग्नोर करने लगते हैं और लोग आपको अहंवादी समझने लगते हैं। यहीं से शुरुआत होती है उदासी की। आपको पता भी नहीं होता, आप भीतर ही भीतर उदास रहने लगते हैं।

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14 APR 2020 AT 10:14


पहले तुम
फिर अधिकार की लड़ाई
फिर हमारा अधिकार
फिर आया संविधान
फिर आयी सीने से लगी क़िताब वाली
तुम्हारी मूर्तियाँ

तुम तो मसीहा थे
तुम भगवान भी थे
जिनके लिए लड़े
जिस लड़ाई ने तुम्हें
एक तबके का दुश्मन बना दिया
उस लड़ाई को अब कौन याद करता है
और तुम किसके भगवान हो?
तुम हो कौन?

तुम तो बस संविधान निर्माता हो
इसके इतर भी तुम्हारी कोई पहचान बची है!

तुम संविधान निर्माता थे
इसलिए तुम्हारी मूर्ति लगी थी!
कौन जाने किस लिए तुम्हारी मूर्ति लगी थी?

किन्तु जिस लिए तुम्हारी मूर्ति लगी थी
वो मूर्ति उस लिए तो वहाँ नहीं लगी है

क्या वो पूजा के लिए लगी थी
या तोड़ने के के लिए लगी थी!

तुम्हारी उस मूर्ति को फिर से बनाया जाना चाहिए
जिसमें तुम्हारी उंगली नहीं, दूसरों का अंगूठा हो

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28 MAR 2020 AT 19:34

देखो, तुम नहीं हो
और मैं
तुम्हारा इंतज़ार भी नहीं कर रहा

[शेष अनुशीर्षक में]

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25 NOV 2019 AT 21:16

इस दुनिया में
कुछ मन
काली सड़क पर
सफ़ेद पट्टी से होते हैं

एकदम अलग
अकेले
उजले
सीधे
सरल
और शांत

बिल्कुल तुम्हारे
मन की तरह

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