मैंने तुझे मोहब्बत की गलियों में खेलते हुए
और मेरी तन्हाईयों में मुस्कुराते हुए देखा था
पागल ना समझ तेरे हर वार की खबर थी ए-दोस्त
क्यूँकि मैंने तुझे खंजर पर धार लगाते हुए देखा था-
कुछ दोस्त हम हैं ऐसे बिठाले हुए
जैसे अँधे ने कई साँप हों पाले हुए
वो समझते रहे मासूमियत को बेवकूफ़ी
हम अब तलक हैं वो चालाकियाँ सम्हाले हुए
यूँ तो माना सभी ने मैंने पा ली है मंजिल
ये न देखा कि कितने पाँव में छाले हुए
तुम हो कि बेचते रहते हो गैरों को मरहम
हम हैं कि फिर रहे हैं जख़्म उबाले हुए
हमने देखे सफ़ेदपोश भी अपने शहर के
जरा सी शाम ढली और सब काले हुए
ये भी सोचा न कि कहलायेंगे एहसान फ़रामोश
हमारे वाले भी अब ज़माने वाले हुए
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तेरी शब्दों की चालाकियाँ इस कदर बड़ गईं हैं,
जैसे उलझे हुए धागों से कोई जिंदगी बुन रही है,
कह कर बदलना, बदल कर फिर मुकरना,
आज़माइश ये मेरी अब वफ़ा की कर रही है,
सूखे पत्तों पे जैसे ओस पढ़ रही है,
तेरी मौजूदगी मेरी रूह को वैसे ही खल रही है.-
एक वक्त से मैंने रिश्ते निभाना छोड़ दिया है
खुशीयों में भी मुस्कुराना छोड़ दिया है...,
समझ तो मुझे भी आती हैं तुम्हारी चालाकियां
फर्क इतना है कि मैंने जताना छोड़ दिया है...!-
चीन की चालाकियाँ,
अब सबको ही हैं दिख रहीं,
मदद के हर प्रस्ताव में,
कब्जे की नीति दिख रही।
बिन ब्याज के निवेश के,
उसके हर प्रस्ताव में;
छुपी हुई जो चाल है,
हर देश को है दिख रही।
यह चीन भी अजीब है,
बनाया समुद्र में द्वीप है;
फिर उसको प्राकृतिक बता,
सागर पे दावा पेश है।
वैसे तो हर पड़ोसी से ही,
उसका बड़ा क्लेश है;
कर ढोंग दोस्ती का भी,
भारत से रखता द्वेष है!-
चालाकियां नहीं आती हमें
तुझे रिझाने की,
हमारी सादगी पसंद आए
तो बात करना...-
इतनी सादगी अब मुझमे नहीं हैं बाकी।
कि तेरी चालाकियों को समझ न सकें ।।-