उम्र गुजार दी शहरों में मैंने, गांवों में रखा ही क्या है,
बैठा रहा अंधेरों में, साला उजालों में रखा ही क्या है।
हाँ जनाब ऐसे ही झूठ बोलकर जीतें है लोग यहां,
अरे! छोड़ो ईमानदारी से जीने में रखा ही क्या है।
यूँ ज़िन्दगी मेरी मदहोश है तो मदहोश सही,
अरे! होश में आने में रखा ही क्या है।
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