तपती आँच में ख्वाहिशें नहीं जला करती,
सहज स्त्रियाँ यूँही जटिल नहीं दिखा करती,
बाँध लेती है आस की डोर से खुद को
बंद मुट्ठी से आसमान नहीं लिखा करती,
ढूंँढ लेती है रास्ता वो बिखरे से रिश्तों में
खिंचकर टूट जाए, ऐसा नहीं राब्ता रखती,
बिखर जाती है अक्सर ही काँच की तरह
'दीप' वो पत्थरों सा दिल नहीं रखा करती,
ईश्वर की ही नेमतें हैं ये आसमां-औ-जमी ं
सृष्टि स्त्री से बेहतरीन और नहीं रचा करती !-
काँच की नींव पर रखी भरोसे की ईंट,
और देखते ही देखते ताश का घर तैयार!
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टूटे काँच के टुकड़े भी चमकते है शान से
उनको क्या पता किसने उन्हें बिखेर दिया
और ये मन है की खुद हिस्सों में बिखरकर भी
वज़ह ढूंढता है आखिर उसे किसने अलग थलग किया-
फलां के घर का काँच, पुराना हो गया है,
मैं मर गया हूँ, उन्हें खबर नहीं है ।-
जाने कब तक बिठाये रखेगी
जिंदगी धीमी आँच पर?
हीरा बनना है तो क्या जरूर ही
चलना होगा काँच पर?-
ना खोल दिल हर शख्स के सामने
हर कोई यहाँ आईना तो नहीं होता...
जरूरी तो नहीं सब समझ सकें दर्द
सभी का दर्द से राब्ता तो नहीं होता...
आईने आर पार भी दिखाते हैं कुछ
यूँ सबको बताना भी सही तो नहीं होता...
फर्क न भी पता हो काँच और आईने में
पर उन्हें तोड़ कर पता करना तो नहीं होता...
हर टुकड़ा तेरे हाथ के पत्थर की गवाही न दे
ये डर भी कभी ज़ाहिर करना तो नहीं होता...
ये टूट कर भी तेरे इर्द-गिर्द बिखर जाएंगे
इन्हें समेट कर हटाना भी आसां तो नहीं होता...-
फूल जो रखा है तुमने किताबों में
शब्दों को चुभ रहा उसका काँटा है-
चुभतें हैं मुसलसल
मुझे ये काँच के सपने मेरे,
लगता है, किसी ने बड़ी
शिद्दत से तोड़े हैं ख्वाब मेरे।-
कोई शोर था भीतर,अब सन्नाटा है।
किसने काँच को टुकड़ों में बाँटा है?-