बहुत टलती रही है
तारीख़ .. लिखने की कविता
इंतज़ार ख़त्म नहीं होता
तारीख़ों से कलेण्डर बदल जाता है
कविता को किस का इंतज़ार है
ये मुझे नहीं मालूम
लेकिन मैं ये जानती हूँ .. कविता इंतज़ार में है
तारीख़ों के बदलने से पहले से
कविता रोज़ कलेण्डर के हर पन्ने को
दस दस बार पलटती है .. और लौट आती है
शुरुआत के पन्ने पर
साल दर साल .. कलेण्डर बदलते गए
तारीखें भी
कविता लेकिन बदली नहीं
एक एक शब्द संजोया उसने
जस का तस
इंतज़ार में तारीख़ के .. लिखने की कविता
अब कह लो तो कह लो
समय के हिसाब से जो नहीं बदलते
पीछे रह जाते है .. गुमनामी के किसी अंधेरे में
कविता सुनती सब है
लेकिन इंतज़ार में है
लिखने के .. कहे जाने के
और वो मरने से पहले तो
लिखी जाएगी कही जाएगी
ये वो जानती है-
लेखक के हाथ में थमी एक कलम हुं मैं
तुम शब्द बनकर मुझमें बहते हो
शब्द का लेखक के अन्तर्मन से कागज पर उतरने तक के समय जितना साथ है हमारा...
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बातें हमे आज़माने की
ऐसे सरेआम हुई
थकी जागी आँखों मे जैसे
रात भी अब ख़्वाब हुई-
कभी कभी कुछ कविताएं ऐसी भी बनती हैं,
जिनके अल्फाज़ कागज़ पर उतर नही पाते !!-
टूटे आईने के हर टुकड़े को,
फिर से जुड़ने का जी करता है।
उठाती हो जब स्याही और कलम,
उस आईने को भी,संवरने को जी करता है।-
मै,"सृष्टि" कलम से करता हूँ।
मै,अपनी 'कृति' का 'ब्रह्मा' हूँ ।।-
खुदको मिटाने की हर हरकत आजमां बैठी हूँ
मौत के तरीकों से थक कर अब मैं
कलम से आस लगा बैठी हूं-
कवि और कायनात के बीच एक जंग जारी हैं
कलम आज भी पूरी कायनात पर भारी हैं-
हाँ कबूल है मुझे मेरा ये निकाह,
हाथो में कलम, हिना का रंग स्याह |-
कलम जब_*उठाती हूँ तो पन्ने__भर जाते है
कहीं ना कहीं मेरे__ दिल के कागज़ कोरे_*रह जाते हैं
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