स्कूल से आते ही
पिता मेरी कॉपियों झाड़-झाड़ कर
ये निश्चित कर लेते थे कि
कही उनमें कोई प्रेमपत्र तो नहीं छिपा।
पिता कहते थे
' प्रेमपत्र- प्रेम का भूत होता है,
एक बार चिपट गया
तो छोड़ता नहीं।'
अब भी
कविताएँ लिखने से पहले
मैं अक्सर डायरी के पन्ने झाड़ लेती हूं।
हालांकि जानती हूँ
पिता के भीति से भागे प्रेमपत्र
ऐसे भागे हैं
कि कभी लौट कर नहीं आएंगे।
-सुप्रिया मिश्रा-
Writer, poet, performer, artist.
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सौभाग्यवती स्त्रियों ने जब जब
आदमी के पैर छुए
नशेडियों के, दुराचारियों और अत्याचारियों के,
पतियों के, पिताओं के, ताऊ चाचाओं के,
वो पैर धरती में धंसते गए।
स्पर्श के भार से
ये पैर इस कदर धंस गए कि
आदमी चल नहीं पाया समय की रफ़्तार।
औरत ने आदमी को ईश्वर बनाते बनाते
पाषाण बना दिया।
-सुप्रिया मिश्रा-
आज आटे से सने परात को नहलाने की कोशिश की तो खींज में आ कर उसने अपने पर आता सारा पानी मेरे ऊपर फेंक दिया। बोला 'ख़ुद सारा दिन आटे में सनी रहती है, बड़ी आई मुझे नहलाने वाली।' मुझे गुस्सा आया तो मैंने उसे और पानी में डुबा डुबा कर, साबुन लगा लगा कर नहलाया। इस मशक्क्त में किचन में ज़रा पानी फ़ैल गया था। मैंने कितनी बार आवाज़ दी कि कोई बाहर से एक पोछा ला कर रख दे यहां। मगर किचेन से मेरी आवाज़ किसी को सुनाई नहीं दी।
अंत में सभी बर्तन धुल कर, परात को मैंने वहीं किचेन की स्लैब पर रख दिया और पोछा लेने ख़ुद ही बालकनी की ओर जा ही रही थी कि नीचे गिरे पानी से मेरा पैर फिसला और मैं वहीं गिर पड़ी। कमर में चोट लगने के कारण अनायास ही मेरे मुंह से चीख निकल गई।
ये नज़ारा देख कर तो परात को इतनी ख़ुशी हुई जैसे उसकी मन की इच्छा पूरी हो गई हो। वो हंसते हंसते लोट पोट हो गया और आख़िरकार स्लैब पर गिरे पानी के कारण वो ख़ुद भी नीचे गिर लुढ़कता हुआ मेरे पास आ रुका।
बाहर से आवाज़ आई 'क्या गिराया?'
- सुप्रिया मिश्रा
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अपने बदन पर मॉश्चराइजर लगाते हुए मुझे हमेशा मुझे पापा के पैर याद आ जाते हैं। सफ़ेद पपड़ी पड़ी त्वचा, पैरों की हड्डियों से इस तरह जुड़ी, जैसे सुबह बिस्तर पर बेतरतीबी से चादर पड़ा हो। न बिस्तर से पूरा सटा, न अलग। सूखे पड़े घुटने, जहां तहां चोट के निशान।
'तेल मोस्चराइज़र क्यों नहीं लगाते आप?'
'क्या हड्डी पे घी डालना!'
सोचती थी, पापा कितने लापरवाह हैं। अपना ध्यान ही नहीं रखते। हालांकि, मां बताती है कि एक ज़माने में पापा बहुत शौक़ीन हुआ करते थे। तरह तरह के परफ़्यूम, क्रीम तेल वगैरह से लैस, पॉकेट में कंघी, एकदम टिप टॉप।
मगर वो अपने शौहर की बात बताती हैं। विश्वास करने को कर लें मगर हमारे पापा के तो शायद सारे शौक़ बाप बनते ही हवा हो गए। हमने कभी उनको इस तरह ख़ुद को सजाते नहीं देखा, बल्कि उसका एकदम उल्टा। फल, घी, बादाम कभी दो तो कहते कि 'तुम खाओ, बच्चे खाते हैं।' और हम खा जाते, क्योंकि हम बच्चे थे। बाप की भाषा बच्चे कहां समझ पाते हैं।
हमारे घर महंगी चीजें ख़ास अवसरों के लिए आती थीं। परफ्यूम खरीदे जाते शादियों के लिए और फिर अगली शादी तक एक्सपायर हो जाते। फिर वहीं एक्सपायर् हुए परफ्यूम अगली शादी में लगाए जाते। क्योंकि बोतल भरी है, फेंके कैसे!
कैसे हमारे पास अपने बच्चों के लिए हमेशा पैसे होते हैं और अपने लिए कभी नहीं, ये थोड़ा थोड़ा अब समझ आता है।
सुप्रिया मिश्रा-
जंगल बगीचे हुए और बालकनी में भागे
पेड़ पौधे हुए और गमलों में
जुगनू फैरीलाइट हुए और बल्ब में भागे
समंदर स्विगिंग पूल में भागा
बर्फ़ फ्रिज में
जानवर मीट हुए और कही नहीं भाग पाए
इंसान गीदड़ हुआ और भागा शहर की ओर।
- सुप्रिया मिश्रा-
पूरी हो जाए अगर इक ख़्वाहिश
आपने सोचा है क्या माँगेंगे?
माँगेंगे ऐसी ही फिर से दुनिया
अबकि आदम के बिना माँगेंगे
- सुप्रिया मिश्रा-