Aparna Tyagi   (अपर्णा त्यागी 'प्रकृति')
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मैं जीना सीख रही हूं...
Joined 20 April 2020


मैं जीना सीख रही हूं...
Joined 20 April 2020
19 JUL 2022 AT 23:19

बुद्ध ने
दु:ख देखे
दु:ख-कारण जानें
दु:ख-निवारण खोजे

वास्तव में
'धर्म-चक्र-प्रवर्तन'
ज्ञान-प्राप्ति का नहीं
दु:ख-अनुभूति का परिणाम है।

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14 JUL 2022 AT 21:47

(लेख अनुशीर्षक में)

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1 JUL 2022 AT 0:40

भ्रम कहां तक पाला जाए
अपमान कहां तक टाला जाए।
चल उठ राणा के वंशज अब
फिर से भाला ढाला जाए।

कुरु कारगिल प्रेरक पथ तेरे
क्यों बारूदी प्रेम संभाला जाए।
तू दहाड़ जरा हुंकार तो भर
दुष्टों को नरक में डाला जाए।

मूक, बधिर, दृष्टिहीन हो
बंदर ऐसा ना पाला जाए।
मेवाड़ मराठा झांसी जैसे
शोलों को रण में तारा जाए।

चल उठ राणा के वंशज अब
फिर से भाला ढाला जाए।

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29 JUN 2022 AT 23:47

किसी शब्द या तथ्य को
उसकी परिभाषा से समझा जाता है
बिल्कुल वैसे ही
किसी परिवार की पहचान
उसमें रह रही
स्त्रियों के ज्ञान व कौशल से होती है
किताब के हर पाठ में
विशिष्ट स्थान रखती हैं
मोटे अक्षरों में छपीं परिभाषाएं
वैसे ही
हर परिवार में
विशिष्ट स्थान रखती हैं स्त्रियां...

मुझे सर्वाधिक चुभता है
बांध देने वाला
वो अवतरण चिह्न (Inverted commas)
जिसे परिभाषा और स्त्री
दोनों पर लगाया जाता है
किंतु दर्शाया केवल परिभाषाओं पर जाता है।

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21 JUN 2022 AT 1:03

'मानविकी' में जुड़ा नया सिद्धांत


(अनुशीर्षक में)

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20 JUN 2022 AT 0:03

अक्षुण्ण ब्रह्माण्ड में
अस्तित्वमयी
सूक्ष्मतम कण से
विराट अर्क तक
प्रत्येक प्रत्यय
हमारे द्वारा दी गई
उनकी परिभाषाओं के प्रति
हू-ब-हू
सार्थकता सिद्ध करते हैं...

स्वयं की निर्धारित सामर्थ्य से
जहां कोई
रत्ती भर अधिक न कर सके
वहां एक "पिता"
"इंसान से आसमान"
होकर दिखाता है...

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13 JUN 2022 AT 23:45

अपरिवर्तित "पत्थर"


(अनुशीर्षक में)

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6 JUN 2022 AT 6:03

"पर्यावरण:-जो हमें चारों ओर से घेरे है"


(अनुशीर्षक में)

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9 MAY 2022 AT 10:17

कुछ लड़के
'अस्थियों' के प्रतिरूप होते हैं

इनकी अनुपस्थिति में
दूभर लगता है
संतुलित खड़े रहना
गतिमय रहना
और आगे बढ़ना

परिवार को आकार
घर को आधार और
सम्बन्धों को साकार
करते करते
ये हो जाते हैं 'स्तम्भ'
दृढ़ एवं कठोर... केवल बाहर से

इनके भीतर की
रिक्तता में
खोखलापन नहीं
हमेशा भरी होती है
'कोमलता'

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2 MAY 2022 AT 0:13

अग्निकुंड की अग्नि सी
चिलचिलाती तपती दुपहरी
जब निचोड़ दे देह पूरी
स्वेद ग्रंथियों पर
जम जाए काली पपड़ी
पिचक गये हों
रसांकुर सारे
ह्रदय प्रकुंचन के दौरान
रक्त नहीं
धमनियों में दौड़ने लगे
साहस
हड्डियों में भरे द्रव ने
जैसे-तैसे संभाल रखा हो मोर्चा...

तब भी वो मजदूर मां
नवजात के लिए
बचा लाती है
अपनी छाती की
"तरलता"

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