मन की भी एक देह होती है निविया
जो यदाकदा स्पर्श की भूखी होती है
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तेरा स्पर्श अभी भी रखा है
तुम मिलो तो छूकर बताऊँ तो,
यह फूल और भी ख़िलते हैं
तेरी ख़ुश्बू अग़र छुपाऊँ तो,
आते हैं तेरे ख़यालों के भंवरे
तेरी यादों को मेहकाऊं तो,
रस में बस के सब तर हैं
मैं नीरस क़भी हो जाऊँ तो,
तुम आना ले जाना अपना यह स्वास प्रिये
तेरा यह एहसास अग़र ना दे पाऊँ तो..!-
काश इन सर्दियों में तुझे पेहनूँ
नरम सा कहीं से, तेरे स्पर्श सा सुक़ून मिले,
कहीं से हल्की-हल्की इस कोहरे सी
तुझसी रेशम सी मख़मली ऊन मिले,
काश इन सर्दियों में तुझे पेहनूँ..!-
चूमा इस तरह जाए
कि होंठ हमेशा ग़फ़लत में रहें
तुमने चूमा
या मेरे निचले होंठ ने
औचक ऊपरी को छू लिया-
ओळखुनी स्वतःस,
मन इतरांचे ऐकावे....
न बोलता काही,
समजुनी समोरच्यानी घ्यावे....
टेकूनी माथा देवासमोर,
दिवा लावावा तिने सांजेला....
जसे असुनी दूर तिने,
स्पर्श करावा माझ्या मनाला....-
मेरी चाय
तन औेर मन मे ताजगी है समाय
इस सर्द मौसम मे तेरी चाहत
सबको दीवाना कर जाए ।
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पुरूष, आजतक
नही सीख पाया
स्त्री की 'देह' को
स्पर्श करना
और...
स्त्री भी
कभी, नही सीख पायी
पुरूष के 'मन' को
स्पर्श करना
दोनों को
दोनों तरह के 'स्पर्श'
सीखने चाहिए!-
दिल को सुकून और करार आता है..
रोम रोम प्रफुल्लित हो जाता है...
सारा संसार तुझ में सिमट जाता है..
मन की कोकिला कूंकने लगती है...
होठों पर कंपन और तेरा नाम आ जाता है..
नैना बावरे एक टक बस तुझे ही निहारते हैं...
एक मायाजाल सा बुन जाता है..
सिर्फ तुम ही तुम दिखते हो हर तरफ..
बाकी सब निरर्थक और शून्य हो जाता है..!!-
ऐसा स्पर्श दे दो मुझे.......
...संवेदना की आख़िरी परत तक, जिसकी पहुँच हो,
...जिसकी निर्मल चेतना घेरे मन और मगज़ हो,
...जिसकी मीठी वेदना, अंतर्मन की समझ हो,
...जिसके पार तुम्हें देखना, मेरे लिए सहज़ हो!
...जिससे उत्सव बना दे मेरे जीवन को,
...जिससे करूणा से भर दे इस मेरे मन को
ऐसा स्पर्श दे दो मुझे......-