यूँ तो ज़िन्दगी में अहबाब हमने खोये बहोत
अब आरज़ू है के मरने पे ज़माना रोये बहोत।।-
न जाने किस गुनाह की सजा दे दी
उसे लिखकर किसी ओर के नसीब में
मेरे खुदा ने ही मुझे मौत दे दी
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गुमान था बड़ा इस तन पर इक पल में हुआ माटि
सबका खेल एक सा अर्थी पर क्या धर्म क्या जाति
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तुझे मुझसे बचा पाएगा
बुलंद हौसलों के आगे काल भी झुक जाएगा
प्रवासी । Pravasi । The Migrant-
उन दो पंक्तियों में
मैंने अपनी पूरी कहानी लिख दी |
" मौत बड़ी पास से गुजरी ,
जिन्द़गी ने होंठों पर झूठी मुस्कुराहट रख दी |
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कुछ रियायतें अता कर दो, मेरे अपने हो गैर नहीं,
सजा टूट कर जीने की है, मौत की नहीं !!
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बता खाऊं किस किस की कसम
तेरे आँखों से तो लुटे हैं हम
जहाँ चांद में है अधूरापन
तेरा हुस्न लगे गुल-ए-नस्तरन
तेरी परछाई से भी शर्म खाएं
सारे हुरों में है जो मोहतरम
जब तबस्सुम सजती तेरे होंठों पर
क्या खूब लगती हो मेरी सनम
कैसे हटे, इन्हें कैसे हटाऊं --- लगता है
तुझे देखते रहने की नज़रों ने खाई हैं कसम
आंखें चांद को देखे बस एक छन
और मानो- तुझे रात भर देखना भी है कम-
खुदको मिटाने की हर हरकत आजमां बैठी हूँ
मौत के तरीकों से थक कर अब मैं
कलम से आस लगा बैठी हूं-