जान से प्यारे ख़ेल खिलौने
जान से प्यारा था बचपन
जान से प्यारे थे पापा
जान से प्यारा था आँगन
सब छूट गया मुझसे
आँखों के आगे-आगे
बंद थी मुठ्ठी मेरी फिर भी
हाथ से निकल गये धीरे-धीरे
मुड़कर देखा कोई नहीं था
सिर्फ यादों का बिछौना था
छाप छोड़ रहे थे मन पर
ख़्वाब थे बस वो प्यारे-प्यारे
अनु अग्रवाल
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ग़म-ए-बारिश में भीगे है अभी मुस्कुराने को मत कहना
ऐ दिल संभल जा अपनी तरह पत्थर बनने की बात ना करना-
कच्ची डोर से बंँधा मज़बूत यह रिश्ता
जितना खूबसूरत उतना ही अनमोल है
तोड़ने से टूटे नहीं रिश्ता ही कुछ ऐसा
भाई-बहन का बंधन जिसका न मोल है
शब्दों से बंटे ना यह अनबन से टूटे ना
प्रेम का रिश्ता यह प्रेम का मेल-जोल है
लड़ लेंगे झगड़ लेंगें पर साथ भी रहेंगें
रखे न दूरी ज़्यादा साथ बोले वो बोल है
चोट खाए एक तो दुसरा भी रो पड़ता
एक छिपाए बात तो दुसरा खोले पोल है
अनु अग्रवाल
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मैं वो ख़याल हूँ जो आता हूँ और चले जाता हूँ
जैसे सांँसें चले जब तक पूछ जाने पर भूला दिया जाता हूँ-
क़ोरा काग़ज़ जैसा कोई नहीं
योरकोट आसमान है तो चांँद क़ोरा काग़ज़
मंच की पहचान है और शब्दों की आवाज
बिखरे हुए पन्नों को संभाले बड़े ही प्रेम से
ख़याल रखे सबका,यह बांँधे एक गांँठ से
कभी मित्र तो कभी सलाहकार बन जाता
नये नये इम्तिहान ले अध्यापक बन जाता
क़ोरा काग़ज़ जैसा कोई नहीं ना ही होगा
सम्मान यहां सबका यह सबका ही मान है
अनु अग्रवाल
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क़ोरे काग़ज़ के बिना लेखन
फूल को खु़शबू,क़ल़म़ को काग़ज़ चाहिए
मरिज़ को दवा तो दर्द को आराम चाहिए
ऐ मुसाफ़िर हम सब ही यहां मुसाफ़िर है
दो ग़ज़ जमीं अपनी क्युं शहर पूरा चाहिए
क़ल़म़ तो लिखे वही जो लिखाए क़ारिगर
क़ल़म़ है कमाल हमेशा इसका साथ चाहिए
काग़ज़ क़ल़म़ दवात और हमें क्या चाहिए
हमारी पहचान यही ,यही इक नाम चाहिए
क़ोरे काग़ज़ बिना लेखन अधूरी सी धूप है
ग़ज़ल और शायरी की ये दुनिया पूरी चाहिए
अनु अग्रवाल
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//ज़िंदगी क़ोरा काग़ज़//
लिखने को ज़िंदगी ने हज़ारों तराने लिख दिए
दर्द हैतो दवा भी हजारों नये बहाने लिख दिए
बातों में कौन जिते हर बार नौ दस जाल बुनती
ज़िंदगी क़ोरा काग़ज़ कई बार ये बात कह दिए
आए थे जब दुनियां में क़ोरे काग़ज़ ही तो थे
धीरे-धीरे छपते गये हम वो अखबार ही तो थे
ऱोज़ नया,ऱोज़ अलग, ऱोज़ बदलते गए ऱोज़
आदमी वही थे हम बस किरदार बदलते गए
स्याही बदली ना कलम लिखा वो करते गये
उतार-चढ़ाव जितने आए नसीब है कहते गये
अनु अग्रवाल
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ऱोज़ टूटी ऱोज़ ही बनी बाद में समझ आया
टूटी हुई आरज़ू से आसमान नहीं बना करते
देव मनाएं ऱोज नये,ऱोज़ बदली प्रार्थनाएं पर
टूटी हुई आस्थाओं से मंदिर नहीं बना करते
साहिल पर बैठकर देखो क्या हासिल होगा
डुबे बिना समंदर में मोती नहीं मिला करते
गम किस बात का दर्द तो आते-जाते रहते
चोट है तो दवा भी यूंही तो रोया नहीं करते
बैठे-बैठे तन्हाई के सिवा कुछ नहीं मिलता
बिखरे हुए ख़्वाबों से नाम नहीं बना करते
अनु अग्रवाल
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वो बचपन के खेल खिलौने धरे रह गए झोले में
कसर ना छोड़ी जिम्मेदारियों ने बचपन खोने में
बचपन क्या ज़िंदगी सबको ही सताए चलने में
छोटी सी उम्र में बड़े हो गए चले आंगन धोने में
कर लिया गुजारा कभी थोड़ा ,कभी ज़्यादा में
भाग दौड़ अभी हैचालू,घंटों बित जाए सोने में
बचपन तो भरपूर जिया गये नहीं कभी मेले में
उतार चढ़ाव में बिती ज़िंदगी आए नहीं रोने में
ज़ख्म बहुत डराए आकर उल्टी सीधी बातों में
रो-रोकर क्युँ आँख लाल करें बैठ किसी कोने में
अनु अग्रवाल
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