पल में आए पल जाए इसकी चाल कौन पहचाने
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नहीं रूके है नहीं थमें है हर राह चले है
हम वो मुसाफिर है जो तुफानों से खेले है
कांँटें भी चुभे है बरसातें भी बहुत झेली
कदम मेरे रूके नही बीत गई कई होली
ध्येय एक आगे जाऊंँ डरकर रूकूं नहीं
भारी था मन में भरोसा अब रूकना नही
तेढें-मेढ़े रास्ते भला कभी तो सरल होंगें
भरकर उजाला फिर से यह नये सबेरे होंगे
कभी रूकना नही हमें खुद से कहते गये
कर लिए वादे खुद से खुद ही निभाते रहे
अनु अग्रवाल
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रो दूंँ तों हँसात़ी है ,रूठूं तो मनाती है
मांँ मेरी सहेली जन्म से पहले वाली है
आसमान सजाए मेरा जीवन भी संवारें
चंदा मामा की बात करके मन भी बहलाएं
ठोकर खाकर गिर पड़ूं तो खुद रोने लगती
सौ ना पाऊं रात को तो कहानी भी सुनाती
मांँ मेरी सहेली हर पल मेरी चिंता करती
खयाल रखे ना खुद का बहाने भी बनाती
ज़ख्म की बात क्या करूंँ तिनके से घबराएं
खुद डांट ले भले दुसरों से वो खूब लड़ जाए
अनु अग्रवाल
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सिर रखकर सोने माँ तेरी गोद दे दे
जिना है मुझे अपने थोड़े आंँसू दे दे-
चार किताबें पढ़ने चार लोगों से मिलने से
माँ की कहानी हमें कहां समझ आई
मांँ बने तब मांँ की बातें समझ आई
मांँ से मांँ तक का सफ़र बताने निःशब्द हूँ
कितने उतार-चढ़ाव कहने में असमर्थ हूँ
चुकायेंगे कैसे कर्ज मांँ की हर रात याद आई
दुलार भी दिया बेशक कभी डांट भी दिया
बलाएं लेती रही सबसे बचाती रही
मांँ बने तो मांँ की प्रार्थनाएं भी समझ आई
मांँ ठंडी छांँव है खुली एक किताब़ है
जिसके हर पन्ने पर लिखी हमारी खुशियां है
माँ बने तो मां की यह किताब़ समझ आई
अनु अग्रवाल
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एक मांँ ही तो है जो हर हाल में मुस्कुराती है
कब हारी कब थकी वो कभी नहीं बताती है-
चोट कोई भी हो हर चोट पर मरहम लगा देती है मांँ
नहीं जानती हमें दर्द कितना है पर उसके दर्द की दवा कहां-
ताउम्र जो किया जाए बिना शर्त जो निभाया जाए
वो इश्क़ है ज़हां दिल का दर्द आंँखों से बयां हो जाए
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तब-तब मिले मैं और मेरी तन्हाई है
कभी शब्दों ने मुझे कहा कभी मैंने
बातें वो फिर शायरी बनकर आई है-