नदी और स्त्री....
किसी नदी को निर्झर बन
ऊंचाई से गिरते कभी भी
गौर से देखा है तुमने???
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ग़ज़ल
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अजब इस जहाँ का ग़ज़ब है सलीका
है दुश्मन यहाँ.... आदमी आदमी का
तुम्हारी नज़र को.. नज़र भर पिया है
लिया लुत्फ़ यूँ मैंने भी मय-कशी का
किनारे ख़फ़ा हो गए.......... टूट बैठे
नहीं रास आया.... उमड़ना नदी का
न रंगीनियाँ भा सकीं.. उस नज़र को
नशा था जिसे बस.. तिरी सादगी का
ख़ुदा मुझसे मेरा.... ख़फ़ा रह रहा है
सिला ये मिला है.... मुझे बंदगी का
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इक हिस्सा साहिल के सहारे छोड़ कर
दरिया डूब जाता है किनारे छोड़ कर
- सुप्रिया मिश्रा-
ऊंची पहाड़ी से छलांग लगाती हुई
टूट कर बूंद बूंद हुई नदियां देखी हैं।
- सुप्रिया मिश्रा-
मेरी चराई हुई बकरियों के बच्चे...
मुझसे मांग रहे हैं...
हिसाब, उन चरागाहों का
जहाँ विचरते थे, उनके बाप-दादा
और,,,, मैं
नि:शब्द हो
देख रहा हूँ
एक शहर...
जिसके खुरों ने रौंद दिये है...
मेरे पहाड़,,,,
मेरे जंगल,,,
जो पी गया है, पानी
मेरी नदी का
जो लीलता जा रहा है....
मेरा अल्हड़पन...
मेरा बचपन...
और,,,,,,मैं
फिर भी....
उसकी चकाचौंध से....
आकृष्ट हो....
होता जा रहा हूँ
शहर....||-
आशियाने को छोड़कर एक बंजारन बनना है।
समंदर नहीं, मुझे तो एक बेघर नदी बनना है।-
नदी किनारे बैठी अगणित स्वप्न सजाये मैं
चांदनी रात आओ न तुम पर प्यार लुटाऊं मैं
- सचिन यादव-
आँखों से जो बह जाये वो नीर खूब है.......
सूखती नदी भी तो अच्छी नही लगती❤-