उसने कहा - "मैं डरता नहीं हूं तुमसे!"
ये कहना शायद उतना ही सामान्य था उसके लिए जितना किसी और के लिए सुनना.. डर हमेशा किसी के हावी होने का सबूत हो ये ज़रूरी तो नहीं.. डर किसी के प्यार का, किसी की फ़िक्र का असर भी हो सकता है न कई दफा.. जब किसी बच्ची का पिता 4 साल की बच्ची की तोतली जुबां से डांट खा कर उसकी मासूमियत से सजल हो कह उठता है कि अरे डर गया मैं तो.. उस क्षण वो डर दुनिया का सबसे सुंदर भाव जान पड़ता है.. जब प्रेम में आसक्त प्रेमिका वक्त पर खाना न खाने पर अपने प्रेमी से झगड़ती हो और प्रेमी कहे की डर लगता है तुम्हारी झड़प से.. खौफ है तुम्हारा और इसलिए नहीं भूलता वक्त पर खाना.. उस क्षण वो डर उस प्रेमिका के लिए सबसे ख़ूबसूरत अहसास बन जाता है..
किंतु मैं ये कह न सकी कि झूठा ही सही डर दिखा दिया करो कभी.. ये डर वो अहसास है जो मुझे बताता है कि मैं ज़रूरी हूं तुम्हारे लिए.. कि तुम्हें भी जरा ही सही फर्क तो पड़ेगा कल अगर मैं तुम्हारे जीवन में न रही तो.. ये डर मुझसे नहीं मेरे लिए है मुझे खोने देने का.. जो बेशक सच न सही पर दिखा दिया करो महज मेरा दिल रखने को...
सो मैंने मुस्कुरा कर कह दिया.. जानती हूं, बनता भी नहीं है तुम्हारा..
मुझसे या मेरे लिए डरना...!-
Love to shape feelings in words..
scribble artist of words..☺
जमाने क... read more
तुम सूर्य हो..
उस सौरमंडल के सूर्य..
जहां तमाम ग्रह कर रहे हैं तुम्हारी परिक्रमा..
मैं भी अपनी कक्षा में अनवरत घूम रही हूं..
तुमसे ही तो संभव है मेरे दिन और रात...
तुम हो अनिभिज्ञ इस तथ्य से..
कि तुम्हारे प्रकाश से ही संभव हो सका है मुझमें जीवन..
तुम्हारा प्रकाश है मेरे जीवन की प्राण रेखा..
तुम दहक रहे हो, अपने ही ताप में तप रहे हो..
किंतु मैं, मैं जानती हूं शीतल होना..
मैं जानती हूं की अपनी ज्वाला को अंतस में समेटे रखना..
ताकि जीवित रह सके तुमसे संभव हुई जीवन की यात्रा...
तुम्हारा प्रकाश सीमित नही है बस मुझ तक..
किंतु अन्य किसी ग्रह पर संभव नहीं हो सका जीवन..
इस सौरमंडल में अब तलक..
प्रेम में ज्वलंत रहकर भी शीतल होना सीखा नहीं कोई..
इसलिए सभी कर रहे हैं तुम्हारी परिक्रमा..
किंतु सिर्फ मैं बन सकी जीवन की परिकल्पना..
मैं हूं पृथ्वी... और तुम सूर्य हो...
मेरे सूर्य....-
एक दीप धरना देहरी पे,
आशाओं से भरा हुआ..
द्वारे सजाना अल्पनाएँ,
नेह रंगों से सजी हुयीं...
मिटे तिमिर अंतस का,
पर्व प्रकाश से भरा हुआ..-
कभी-कभी ह्रदय बस रिक्त सा हो जाता है, फ़िर कोई भाव, कोई विचार आकार नहीं ले पाता.. आँसू पलकों की कोरों तक पहुंचने का रास्ता भूल चुके होते हैं, शिकायतें अधरों का.. दिन आवश्यकता से अधिक व्यस्त हो जाते हैं और रातें एकदम रीती, इतनी की उनका नींद से भी कोई वास्ता नहीं रह जाता.. सारी रात न जाने शून्य में क्या तकते हुए बीत जाती है.. कभी संवेगों का ऐसा ज्वार उमड़ता है मानो अंतस की सारी पीड़ा को पिघला कर बहा ले जाएगा लेकिन अगले ही क्षण मानो हिमगिरि सा ठोस मौन सारा उद्वेग वहीं वैसा का वैसा सब स्थिर कर देता है.. ना जाने कितने ही द्वंद पलते रहते हैं भीतर और बाहर... बाहर एक साम्य स्थापित हो जाता है आप प्रतीत होते हैं शांत, निर्विकार, स्थिर.. किंतु आपके दृगों में पसरा होता है निर्वात सा एकांत... कदाचित् यूँ रीत जाना ही नियति है मृत होने से कहीं अधिक भयावह नियति...
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बातें कितनी भीतर रखकर, बंद हृदय के द्वार करे..
पलकें नम रहती हैं किन्तु, अधरों पर मुस्कान धरे..
गुमसुम सी, खोयी-खोयी सी रहती है अपने में ही..
भीड़ में भी यूँ तन्हा जैसे, एकांत है सारे गान भरे..-
तुम कहते हो तुम पर कुछ लिखूँ और मैं बस यूँही टाल जाती हूँ कभी तुम्हें एक दिलासा देकर कभी इंतेज़ार कराने के लिए शर्मिंदा होकर.. पर जानते हो जब जब कोशिश करती हूँ तुम्हें शब्दों में उतारने की.. शब्द मौन हो जाते हैं मेरे.. इस संसार मे शायद सबसे मुश्किल है अव्यक्त को व्यक्त कर पाना और जो व्यक्त किया जा सके वही स्वीकार्य है संसार को.. तभी तो राधा का प्रेम प्रेम है, रुक्मणि का प्रेम अधिकार और कर्तव्य, मीरा का प्रेम भक्ति, द्रोपदी का प्रेम मित्रता.. यशोदा का प्रेम मातृत्व.. हर वो संबंध जिसमें प्रेम व्यक्त करने का जरा भी स्थान है उसे एक नाम से बांध रखा है इस संसार ने.. मैं ये नाइंसाफी नही कर सकती , न तुम्हें किसी रिश्ते में बांधने की, और न ही शब्दों में बांधने की...तुम वो मौन हो जो संवेदना की पराकाष्ठा है, तुम वो संबंध हो जो लौकिक को अलौलिक बनाता है.. मेरे अंतस के निर्वात में भी जो नाद सुना जा सके वो है मेरे और तुम्हारे मध्य का संबंध... मैं नहीं जानती कि संसार में उलझे मन और मस्तिष्क किस हद तक इसे समझ सकते हैं लेकिन इतना तय है कि मैं ये किसी को भी समझाना नहीं चाहती.. यहाँ तक कि तुम्हें भी नहीं.. एक पवित्रता है जो इस संबंध को आध्यात्मिक महक देती है और इसे ऐसे ही रहने देना चाहती हूँ मैं, सदैव सुगंधित, अवर्णनीय, और पवित्र...
और तुम्हें मैं सदैव रहने देना चाहती हूँ अव्यक्त...
- अनुभा "आशना"-
अरसे बाद, जैसे मिली हूँ खुद से,
इक मुद्दत आलम में थी तन्हाई..
न ख़ुशी-ग़म,न शिक़वा कोई भी,
फ़क़त सुंकूँ से है अब शनासाई...-
मैं चाहती थी सदा ही, उसकी कविता बनना..
मैंने चाहा ही कब प्रेम में, प्रेयसी,दासी,भार्या होना..
मैं तो उसकी लेखनी से लिखा जाने वाला,
एकैक शब्द होना चाहती थी..
उसकी कविता में बसा चिर स्थायी
भाव हो जाना चाहती थी...
जो उसे बनाते हैं कवि उन समस्त,
प्रेरणों का आधार होना चाहती थी..
किन्तु यह हो न सका..
यह हो न सका क्यूँकि प्रेम में मात्र,
एकात्म हो जाना पर्याप्त नहीं..
प्रेम का होना दैविक,पारलौकिक, प्रेम की पुष्टि नहीं..
वरन प्रेम का होना लौकिक, दैहिक अत्यावश्यक है..
यह सिद्ध करने को, कि प्रेम किया गया है..
भूल गयी थी कि मैंने नहीं किया किसी देवता से प्रेम...
कि प्रेम में नहीं देना चाहिए किसी को ईश्वर का स्थान..
अस्तु अधिक आवश्यक है, प्रेयसी,दासी,भार्या होना...
प्रेम में कविता होने से...-
आँखे चुन लेती हैं अक्सर पत्थर हो जाना....
(read in caption)
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क्यूँकि यादें सिर्फ़ मेरी हैं..
लेकिन रिश्ता हम दोनों का था...
(अनुशीर्षक में पढ़ें..)-