Barkha Bhadauria   (Barkha)
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Joined 27 November 2018


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Joined 27 November 2018
10 JAN 2021 AT 19:30

कौन बह सका है सतत नदी सा इस जग में,
यह जिंदगी है, एक ठहराव भी तो जरूरी है।

हाँ, हो चुका है मिलन तेरी-मेरी सांसो का, पर,
प्रेम पूर्ति के लिए अब वियोग भी तो जरूरी है।

ज्ञान, धर्म, कर्म इन सब से कहां पूर्ण हूंँ मैं,
"मैं" के लिए तनिक अहंकार भी तो जरूरी है।

सह सके सभी का स्पर्श ऐसी कहां है तू "बरखा",
उसके लिए तेरा " गंगा" होना भी तो जरूरी है।

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3 JAN 2021 AT 12:33

हाँ, अगर तुम
थोड़ी कोशिश करोगे,
तो जान जाओगे,
कि नहीं है अंत
उसके अंदर उमड़ते प्रेम
और क्रोध का भी।
बह रही है एक अनंत धारा
दोनों की ही उसके अंदर।।

"स्त्री" बस प्रकृति ही नहीं
वरन् संपूर्ण ब्रह्माण्ड है।

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31 DEC 2020 AT 10:38

कि अब ना सूरत,‌ ना सीरत और ना किसी रंगीन शाम की जरूरत है,
बस एक महफ़िल, एक गुलाब और आधे गिलास जाम की जरूरत है।

बाँट लूंगी दर्द-ए-दिल मैं तो इंतिज़ार-ए-यार सुनाकर मुशायरे में भी,
वो जो दूर अकेला बैठा है न, मेरा यार,‌ हमदर्द की तो उसे जरूरत है।

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20 DEC 2020 AT 18:13

जो अंत हैं सभी का,
मेरे प्रेम का आरंभ हैं वो।
कभी डमरु से निकला नाद,
तो कभी त्रिशूल का वार हैं वो।

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13 DEC 2020 AT 21:24

हर बार नहीं समझ पाता है मेरे लिखे अल्फाज़ों को,
फिर इस बार उसी पुराने दर्द को नया लिखना होगा।

हुआ करती थी मैं कभी चाँद उसके आसमान का,
पर इस बार शायद मुझे पूरा "ब्रह्मांड" बनना होगा।

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5 DEC 2020 AT 19:07

न मोह, न स्नेह और न कोई चाह बची है अब मुझमें,
दिखता शरीर हूँ, पर अंदर बस राख बची है मुझमें,

चिंगारियां दिखाकर जलाने की जरूरत नहीं है तुम्हें,
अंदर राख में अभी भी आग की तपन बची है मुझमें।

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29 NOV 2020 AT 17:34

कि अब मुझमें ही "मैं" कम और तुम थोड़े ज्यादा हो,
जैसे सामने खड़ी मैं हूँ पर आईने में अक्स तुम्हारा हो।

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18 NOV 2020 AT 21:50

She always tried to find
happiness in his vibes.
But one day he left her
saying that "we don't vibe as lovers".

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7 NOV 2020 AT 18:22

मुझपे गिरते ये दरख़्त के हरे पत्ते,
जैसे नज़्मों से भरे पन्ने लग रहे हैं।

जिन्हें मानो कभी मैंने ही लिखा हो,
और अब टूट के मुझपे ही बरस रहे हैं।

जो गुनगुना रहे हैं मेरे ही लिखे गीत,
जैसे छाए मौन को शोर में बदल रहे हैं।

बिखर रहे हैं कुछ ऐसे पास आकर मेरे,
जैसे एक और नज़्म सुनने को तरस रहे हैं।

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1 NOV 2020 AT 22:04

खिड़की के इस पार बरखा,
और उस पार एक बूंद है।
जो मिट रही है पल-पल,
शीशे पर खिसकते हुए।
पर देख रही है प्रेम अपने लिए,
उस ओर से देखती हुई आँखों में।
जो थमना चाहती है,
दो पल के लिए ,चैन से,
उन आँखों मे बहते हुए,
प्रेम को देखने के लिए।

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