दूध सी,,, तुम
पानी,,, मैं
शक्कर सी,,, तुम
पत्ती चाय की,,, मैं
मिलकर ना कूटते,,, अदरक-इलायची
ना घुलते-महकते,,, एक दूसरे के संग
तो,,, अधूरा रहता स्वाद
हमारी चाय का,,,
जीवन का ॥-
"ब्लात्कार"
कल रात मेरी बाहों में,,,,
तुम थी !!!
मेरे ज़हन में कोई और ,,,
तुम्हारी चाहत,,, मेरा प्यार
और,,,
मैं कर रहा था,,,
ब्लात्कार ॥
मैं उसकी बाहों में था,,,
लेकिन,,,
उसके मन में नहीं !!!
मैं घोल रहा था,,,अपना प्यार
उसकी साँसों में,,,
वो बेसुध,,,
जैसे कर रहा हो कोई,,,
ब्लात्कार ॥-
अखबार की सुर्खियों में थी,,,
" एक बूढे आदमी की मौत "
पोस्टमार्टम के दौरान यह पाया गया कि,,,
उसकी मौत भूख से हुई थी,,,
और यह भी कि,,,,
उसके बेटे विदेश में नौकरी करते थे,,,
जो पिछले सात दिन से,,,
बाप की खोज खबर लेने का,,,
वक्त नहीं निकाल पाए थे !!!
अंतड़ीयों में ऐंठन,,, और
आंखों से रिसते नमक के निशान झुर्रीदार गालों पर इंतज़ार की कहानी कह रहे थे,,,
लेकिन भूख,,,
भूख भी,,,,
"मृत्यु की तरह अटल सत्य है"
एक सत्य ने दूसरे के सहारे उस बूढ़े का अकेलापन दूर कर दिया,,,
रह गई सिर्फ ख़बर,,,
और,,,
मुखाग्नि के समय,,,
यू ट्यूब पर बूढ़े पंछियों को मुँह में दाना देते हुए पक्षियों का विडियो देखता हुआ,,,
उस बूढ़े का पोता,,,
उसे निहारते हुए उस बूढ़े के लड़के !!!
©राजेश शर्मा
-
सिगरेट सी ज़िंदगी समय के कश लगाती हुई,,,
धुएं की मानिंद उड़ी जा रही हैं,,,,
अचानक,,,,,
आज कई दिनों के बाद,,,
गली के मोड़ पर खड़ी,,,
पान की दुकान की नजरें,,,
मुझ से टकराई,,,
वो मुस्काई,,,
मैं खिलखिलाया,,,
तभी,,,
कांधे पर एक हाथ जितना भारीपन,,,
उतर आया,,,
पलट कर देखा,,, तो,,,
कुछ नहीं पाया,,,
बस,,, चार दोस्त,,,
कल मिलने के वादे के साथ
एक दूसरे को अलविदा कहते हुए,,,
नज़र आए,,,
गली के एक मोड़ पर,,,
वो खो गए,,,
धुएं की मानिंद,,,
मेरी नजरो में रह गए
अधजली सिगरेट के मसले हुए टुकड़ें,,,
और,,, कानों में गुनगुनाती पान की दुकान,,,,
कि,,,
जिंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं,,, जो मकाम,,,,
वो फिर नहीं आते,,, !!!-
मेरी चराई हुई बकरियों के बच्चे...
मुझसे मांग रहे हैं...
हिसाब, उन चरागाहों का
जहाँ विचरते थे, उनके बाप-दादा
और,,,, मैं
नि:शब्द हो
देख रहा हूँ
एक शहर...
जिसके खुरों ने रौंद दिये है...
मेरे पहाड़,,,,
मेरे जंगल,,,
जो पी गया है, पानी
मेरी नदी का
जो लीलता जा रहा है....
मेरा अल्हड़पन...
मेरा बचपन...
और,,,,,,मैं
फिर भी....
उसकी चकाचौंध से....
आकृष्ट हो....
होता जा रहा हूँ
शहर....||-
ये किताबें,,,
शामिल हैं,,, हमारी कहानी में
काश कि,,,
एक दिन हमारी भी कहानी हो
इन किताबों में !!!-
जनसंख्या,,,,
जन और संख्या का मेल नहीं है,,,
केवल जन हैं,,,,
जो बढ़ा रहे हैं,,,
अपनी संख्या,,,
और
सोचते हैं कि
एक दिन लील जायेंगे,,,,
ये धरती ,,,
एक दिन जीत लेंगे,,,
ये आसमान,,,
एक दिन गुलाम बना लेंगे,,,
प्रकृति को,,,
और फिर,,,,, एक दिन
जब ये मुगालता टूटेगा,,, उस दिन
कहर बन टूट पड़ेगी ये प्रकृति !!!
फिर न रहेंगी संख्या,,,
ना ही जन !!!-
औजार,,,
हम औजार है,,,
जो जानते हैं, अपना काम
पर क्या, कभी देखा है ????
हमें, खुद ही करते हुए काम,,,
हम तो मासूम है,,, उस बच्चे की तरह
जो नहीं जानता धर्म,,,
बस, जो जैसा कह दे ,
वही होता है,,, उसका कर्म
हम गीली मिट्टी से मासूम
जो जिस तरह गढ़ता है,,,
वैसे ढल जाते है,,,
नियत जिसकी जैसी,,,
नियति अपनी,,, वो स्वीकार कर लेते हैं,,,,
हम तो हैं,,, सिर्फ औजार !!!
अब तुम चाहे बनाओ हमसे,,,
बच्चों से खिलौने,,,
या विध्वंसक हथियार ।।।-
सुना है ! जहर हो गई है हवा।
ये देखते हुए कि,
मौत हर दरवाजे पर,
दे रही है दस्तक।
राजा ने मुनादी करवाई है।
सुनो, सुनो ,सुनो!
सभी अपने अपने घरों में रहें,
भूख की खिड़की,
आस के दरवाजे बन्द ही रखें!
कुछ दिनों की ही बात है,
आज ज़िन्दगी और मौत के बीच चुनाव है।
हाँ , चुनाव हैं ।
चुनाव जो हम जीतते रहे !!!
विकास के दांव पर,
तुम हारते गए,
धर्म, जाति और लालच की आवाज पर!
अब भुगतो और घूमों,
अस्पतालों के चक्कर लगाते हुए,,,
बेड, दवा और हवा की कतार में,,,
और देखो !
धीरे-धीरे आसमां की ऊँचाइयों को छूते,,,
विकास के आंकड़ों को टक्कर देते हुए,
बढ़ रहे हैं,,,,,
हमारे अपनों की मौत के,,,!!!-
मां, बैठी है
सांकल पर
ले रही आहट
पदचापों की,,,
गहराती शाम में
सूरज का, इंतज़ार करती
बैचेन, नदी सी
कुंडी से उतर,,,
घुम आई, पंछियों सी
अपने जग की
भूमध्य रेखा से
दोनों ओर ,ध्रुवों तक,,,
पर, वो नहीं लौटा
जलती है, जिसके लिए
आग, चुल्हे में
मन में आस सी,,,
दुआ संग निकाले
घर से बाहर
देव सारे, लिवाने/लाने
अपने चाँद को,,,
चाँद लौटा, बेसुध
सो गया, अपने आसमां में
तारों संग,,,,
चांदनी के आगोश में,,,
बुझा पेट की आग
फिर बैठ गई , मां
सांकल पर
इंतज़ार में, भोर की,,, ||
राजेश शर्मा-