दुनिया की इस भीड़ में
खुद को नही खोना है
अपनी खुदी को बेखुदी
नहीं होने देना है-
ख़ैर खुद्दारी की सारी हदें
पार की थी तुमने।
तुम्हारा वो इतनी बदसलूकी से ठुकराना ...
आज भी याद है मुझे।-
समर्पण ही किया था मैंने,
वो कोई शरणागति नहीं थी...
मुझे तो चाहिए था सात जनमों का साथी
तुम्हें तो दिन में कामवाली और रात को बाहोंमे आनेवाली की तलाश थी...
मैंने अपने पैर पर खडा होना चाहा
पर तुमने इनाम दिए वह बेल्ट के निशान
अपाहिज बना गए मेरे पैर....
मैंने सिर उंचा कर जीना चाहा
तब तुमने गर्दन मरोड़ सिर झुकाया मेरा...
शादी के वक्त हाथ-पाँव मेहंदी से सजे थे
तुने मांग मे सिंदूर सजाकर
जख्म से जिस्म सजाने का हक ही पा लिया...
यूं तो बाहर दुनिया से डरने वाले कायर तुम
कमरे के अंदर मर्दानगी बहुत दिखाते हो...
तुम्हारी हर फटकार मे
प्यार की उम्मीद ढुंढती रही मैं...
पर अब बस...
तूने समझा होगा काँच की गुडिया
पर खुद्दारी के लोहे से बनी मूरत हूँ...
जो आज भी कहती हैं तडप तडप कर,
ये समर्पण हैं मेरा,
इसे शरणागति समझने की भूल न करना...
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कविता को दरबारी मत कर,
या फिर हमसे यारी मत कर!
हम घर फूंक तमाशे वाले,
हरगिज होङ हमारी मत कर!
बहरों से बेगाना बनकर,
ग़ज़लों से गद्दारी मत कर!
बदलेंगे हालात यक़ीनन,
दिल को इतना भारी मत कर!
कुछ तो अपनापा रहने दे,
हरदम दुनियाँदारी मत कर!
कभी किसी दिन हाथ पसारे,
इतनी भी दातारी मत कर!-
खुद्दारी ईमान में है तो
जिम्मेदारियों भी उठ जाती है
बैसाखी के सहारे!
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वो अपने कदमों पर मेरा सजदा कराना चाहते थे,
उन पर मेरी खुद्दारी भारी पड़ी|-
ना मैं भीड़ हूँ दुनिया की
ना इस भीड़ का हिस्सा हूँ
जो कहानी लिखी ऊपर वाले ने
मैं भी उसका एक किस्सा हूँ !!-
वो भूखा था! भिखारी नहीं।
कैसे रुकता!!
तुम्हारी कैमरे की नेकी के लिए।-