वक़्त की चोट बस इतनी ही सता पाई है, कि
चौथ के चाँद बने बैठे है, आसमाँ के !!-
खाना का स्वाद कम होने पर पति से "पिटती महिला",
"दुसरे मर्द" से बात करने पर महिला पर लगाया गया
समाज के द्वारा "चरित्र हीन का कलंक",
किसी "गरीब महिला" पर काले जादू का आरोप लगा कर
उसका बाल कटबा "मुंह में कालिख" लगा कर पूरे गांव में घुमाना,
एक 65वर्ष के वृद्ध से "12वर्ष कि बच्ची का विवाह",
एक जीवन साथी के द्वारा ही सदियों से
होता आ रहा पत्नी का "मैरिटल रेप",
धर्म और जाति के नाम पर किसी "समुदाय"
के द्वारा पेड़ से लटकाया गया "प्रेमी जोड़ा",
किसी "जघन्य अपराध" की शिकार हुई 3वर्ष की बच्ची,
अपने "रिश्तेदार" से ही "बाल उत्पीड़न" का शिकार हुआ लड़का,
हमें ये बताती है कि हमेशा "अभी के पीढ़ी"
के लोग ही गलत नहीं होते,
कभी कभी हमारी "जड़े" ही "खोखली" होती है..!!!
(:--स्तुति)-
एक ही कोख से जन्मी,
वो भी तो बेटी थी,
मासूम सी, नन्ही सी,
वो भी तो इक कली थी,
पर क्या मालूम था....
"ऐ विधाता" तूने,
एक का भाग्य स्वर्ण सुसज्जित
कलम से रचा तो,
दूसरे की काली स्याही से लिख दी,
तूने किस्मत रेखा...
जिसकी स्याह,
अन्तर्मन को करती दागदार...
रोज धोती, खुरचती रहती,
मैले हुए दामन को,
और अन्त में,
हारकर बैठ जाती,
ढोने को नितप्रति,
अपने मन की लाश...-
नारी
बेचारी...!
पैदा करे तो दोष
न करे तो लांछन...
कलमुँही, बाँझ है...!
बाँझ तो धरती भी होती...
वह भी तो नारी है...
पैदा न करे तो
ताड़ना की अधिकारी है...
पर आकाश?
नहीं नहीं आकाश नहीं..
वह तो नर है...
और नर...
वह तो कलंक-हीन है...
अनंत काल से कभी
गर्भ न धारण कर सका..
वह तो महा-बाँझ हुआ ना?
नहीं कदापि नहीं...
सृष्टि में ऐसा कोई नियम नहीं...-
अवांछित स्पर्श
प्रहार है
देह पर ही नहीं, आत्मा पर भी।
प्रेम की आड़ में छिपकर
ताकती निरंकुश वासना
जब चरमोत्कर्ष को छूती है,
तब जागृत हो उठता है
मानव के भीतर का
कठोर दानव
जिसे न तो कोमल देह
दिखाई पड़ता है
न ही संवेदनशील आत्मा।
आह उठती है देह से
और तड़पती रहती है आत्मा।
समय मिटा तो देता है
देह पर जबरन चिन्हित धब्बों को
लेकिन रह जाता है आजीवन
कोई 'कलंक' आत्मा की ललाट पर।-
उस इश्क़ को कलंक कहते है लोग,
जिसमे मोहब्बत बेशुमार है,
उस गठबंधन को पाक मानते है लोग जिसमे इश्क़ नही समझौते हज़ार है...!-
बिका जमीन,बिका मकान,बिके गहने तक,
बचे थे चार बून्दें अश्क,वो भी खर्च हुए जनाज़े में।-