ढोल गंवार....
(कहानी : अनुशीर्षक में)-
निरंतर झेली जाने वाली अवहेलनाएँ,
बार बार हुआ निरादर,
हर एक फैसले पर अस्वीकार्यता की पक्की मुहर,
अंतस के किसी कोने में इन सारे प्रतिमानों का ढेर सा लगता जाता है..
और फिर एक दिन,
जब सहने की क्षमता पराकाष्ठा पार कर अपने चरम को प्राप्त कर जाती है
तब इन्हीं प्रतिमानों के आपसी घर्षण से उत्पन्न होती है चिंगारी 'विद्रोह' की..
कि जिससे सब कुछ फूस सा जल जाता है
जिस प्रकार से लावा पिघलता है धीरे धीरे और
एक दिन में नहीं आती ज्वालामुखी,
उसी प्रकार ये विध्वंस भी शनैः शनैः आता है
वस्तुतः क्रांति महज़ उस नवजात शिशु की भाँति है
जिसका गर्भकाल सदियों लंबा चलता है..
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बख्शीश में मिला है ये हुनर टूटकर और ज्यादा महक जाने का,
हाँ हूबहू चाय की उन पत्तियों जैसी ही तो हूँ मैं..-
हाँ बेशक मैं एक मर्द ठहरा,
पर दर्द मुझे भी होता है..
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)-
कि यूँ ही तो काफिरों को खुदा मिला नहीं करते,
इश्क में तुमको मुसलमाँ होना चाहिए..-