वो ज़माने की भीड़ में शामिल तो हो गया लेकिन,
मुझे यकीन है मेरे बिन वो आज भी तन्हा होगा !-
मज़हब है 'गुलज़ार' मेरा, रूह भी रूमानी है,
जिस्म हिंदू है मेरा, ज़ुबाँ मुसलमान... read more
इल्तिज़ा ऐ तारीफ भी करते हैं वो, तो किस अदा से
के जैसे एहसान किया हो हम पर, खूबसूरत हो कर-
हम जैसे बेफिक्र जिस दिन हो जाओगे
तुम भी ज़माने में 'आवारा' कहलाओगे-
भीड़ तो मेरे इर्द गिर्द सब ने देखी
तन्हा दिल किसी को नजर न आया
मोहोब्बत की धूप ने झुलसा रखा है
मांगते हैं बस एक नरम सा साया-
लिखूं तो मीलों मोहब्बत लिख सकता हूं
कहूं तो एक लफ्ज़ भी कहा नहीं जाता
देखूं तो हद्द-ए-बीनाई तक तू है
सोचूं तो चेहरा तक याद नहीं आता
पढूं तो दुनिया का सुख़न फ़िजूल है
समझूं तो तुझे मैं समझ नहीं पाता
मिल जाए तू, ये ना मुझको कुबूल है
खोजाए तो एक पल जिया नहीं जाता-
एक सैलाब सा दुश्वारियों का, मेरी फ़िराक़ में है
एक हुजूम है यारों का, मुझे कुछ होने नहीं देता-
बस वही गलतियां वो हर बार करता जा रहा है
इश्क करता जा रहा है, इनकार करता जा रहा है-
ना भूले गये, और ना निभाए ही गये
वादे तो फ़कत वादे थे, आये ओ गये
मुद्दतों, तेरे ही तसव्वुर में रहे आंखें मींचे
हसीं, नज़रों से सैंकड़ों यूं आये ओ गाये
दस्तूर ए इश्क था के हम खामोश रहे
कितनी मर्तबा यूं तो हम उकसाये गए
इश्क दोनो की खाता थी शायद
बरहा, यूं हम ही क्यों सताए गए
सुहानी शब, बन कर के 'दुल्हन' रोई
अनगिनत ख़्वाब तेरे जूं आये ओ गये
एक अदद खुशनुमा जिंदगी की चाहत में
बे-मुरव्वत, बेवजह ही हम रुलाये गए
इस क़दर बेज़ार ऐ 'खुर्द' हम खुद से हुए
न दोबारा किसी महफिल में आये ओ गये-