जब जावेद अख़्तर ने साहिर से लिए 200 रुपये
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सिसक रही मिट्टी पुकारती है,
धरा का ऋण तुम भी उतार दो,
सीमा के जवानों का ही काम नहीं
अपनी गलियाँ ही तुम संवार दो,
देखो गौर से घर की बेटियों को
हर बेटी को वही व्यवहार दो,
छलनी क्यों भारत माँ का आंचल
दुशासन अपने मन का मार दो,
हर गली मिलकर देश बनता है
तुम सुधरो, सारा देश सुधार दो !-
साँसों की किश्तों से, जीवन का, ऋण उतारता हूँ मैं
जीने के लीये, खुद को, हर घड़ी हर पल,मारता हूँ मैं-
ऋण लेकर करते ग्रहण जो ऊँची शिक्षा
विदेशों में माँगे जाकर, नौकरी की भिक्षा
बैंक का ऋण तो वो चुका पाते हैं
पर देश का ऋण वो भूल जाते हैं
जागो नौजवानों देश का ऋण चुकाओ
अब भी समय है वापस लौट आओ
यहाँ रोटी कमाना है इतना आसान नहीं
विदेश ही हर समस्या का समाधान नहीं-
प्रेम अपूर्ण
फिर भी ये जीवन पूर्ण
वक़्त ने भी चुका दिया मेरे
समर्पण का ऋण-
फ्लैट..
न अपनी छत है ,न खुला बरामदा
और तुम कहते हो, फ्लैट वाले हो।-
यदि आप अधिकार के लिए लड़ना चाहते हैं,
तो "इस मिट्टी के लिए लड़ो" धर्म के आधार पर कभी नहीं।
यदि आपकी आने वाली पीढ़ी का भविष्य उज्जवल होना है,
तो ऐसे जन्मस्थान के ऋण का भुगतान करें जो सही है,
वही कर्म करें और किसी भी झूठ में न पड़ें।
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