शक्ति कर्मकांड में नहीं
अंधविश्वास में होती है।-
मन और मस्तिक में अपार शक्ति है,,,
श्रद्धा और भाव से प्रेम और भक्ति है,,!
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बस निरीह बन खो चली हैं,
आशातीत उत्तेजना।
क्षुब्ध होती दिख रही,
मुझमें मेरी संवेदना।
प्रश्न है मुझमें विवश,
या क्षोभ का जंजाल है।
ज़ख्म है मेरा अमर,
या ये विधि की चाल है।
था नहीं कुछ मूल में,
ना पूर्णता में चेतना।
है नहीं संतृप्त कुछ,
क्या लक्ष्य मुझको भेदना।
तुम मुझे मेरे खुदा,
वह तुच्छ इक संज्ञान देदो,
वो तुम्हारा बज़्म दो,
या राह इक वीरान देदो।-
शब्दों की शक्ति
ये मेरी कल्पनाएं हैं अभिलाषाएं हैं इच्छाएं हैं
जिन्हें मैं जैसा चाहती हूं उनसे खेलती हूं
जिस रूप में चाहती हूं जैसे देखना चाहती हूं
उस आकृति में सपनों की रोटियां बेलती हूं
अपने मन की भित्तियों पर शब्दों के रंगों से
भावों की कूचियों से मनचाही तस्वीर उकेरती
अपने ही मन के कोने में चुपचाप छुपे बैठे
बचपन के दिनों जवानी की हसरतों को टेरती
पर कुछ न नज़र आता सिर्फ़ असीम तन्हाई
नींद आंखों से उचटती बस आती है उबकाई
आ जाओ जन्म जन्मांतरों के प्रियतम मुझ तक
कि अब तो ज़िंदगी भी अपनी हो रही पराई
जो कुछ मिला नहीं शब्दों से बना लेती हूं
खो गया है जो भी उसे वापस बुला लेती हूं
शब्दों में इतनी शक्ति ज़िंदा करे मृतक को
विश्वास जागे ऐसा परिश्रम करे अथक वो-
उगता सूरज ,देता संकेत,
प्रकाश देता सावचेत ,
भरा पड़ा साहस-हिम्मत ,
मानव में अनुभव सुरेख ।।
पर ढके हुए हैं मानव,
कई सारी परतों से लेख,
जैसे ढक जाता है अक्सर,
घने बादल में सूरज की रेख।।
गर पहचान बनानी है,
तो आलस्य त्याग ,हो सचेत।
कर्मक्षेत्र में जुट जाओ,
दुर करो बातें निश्चेत।।
दूर करो नकारात्मकता,
सकारात्मकता हो समवेत।।
उगने से पहले सूरज के ,
तुम उठो लक्ष्य को साधो अनेक ।।
फिर अगला लक्ष्य बड़ा रखो
पहचान बनाओ लाखों में एक।
समय कम नहीं तुम्हारे पास,
समय का सदुपयोग पथ है एक।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)
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कुटिलता
कुटिलता मन मे लिये विचरते है
पवित्र रिश़्तो का पतन जारी है
लोग अवचेतन मन रहते है
यह व्यथा आहत करती है
कुटिलता जब चेहरे पर चेहरा लगाये
नग्नता को जब रहती हो छुपाये.
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तुझे देखते देखते फिर अवचेतन हो जाऊ,
आ तेरी नजरों में खोकर फिर तेरा हो जाऊ,
क्यू रहना है तुझसे अलग होकर आ फिर
तुझसे खुदको मिलाकर पूरा एक हो जाऊ।-
सपने जीवन मे आगे बढ़ने के लिए देखे जाते है, कुछ सपने वे होते है जो हम चाह कर देखते है
मगर कुछ ऎसे भी होते है जिनको हम चाह कर नही देखते, जिनका हमसे संबंध तो होता है मगर कुछ दृश्य भी उसके अगर वास्तविकता हो तो उनमें जीवन परेशांनियो के अलावा कुछ नही होगा,
क्या ये सब हमारे अवचेतन मन के कारण होता है
या सिर्फ वर्तमान या आगामी जीवन के संकेत मात्रा होते है, सिर्फ ये सभी अनदेखा करने के लिये ही होता है,।-
मेरे अवचेतन मन में
एक स्वर चेत रहा है,
उसका प्रस्फुटित होना
मृत जीवन का पुनर्जन्म,
एक शाखा मस्तिष्क में
इस तट से उस तट तक,
न जाने कितने पाती
फले, फूले और झर गये..
हृदय की बहती धारा में
कितने भावों की लहरें,
चेतन मन पर अंकुश
असमंजस समझे रुके पग,
कभी पीछे तो कभी आगे
कभी स्थिर और शांत,
किंतु मन अस्थिर, अशांत
भिन्न-भिन्न इसकी चेष्टाएं
कभी उत्सव, कभी एकांत..-