गिर जाओ गर ,उठ खड़े होना,
रोना नहीं ,मन संभालते रहना।
जो हुआ वह ईश्वर की मर्जी है,
सावधान! देखना मन हारे न।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)
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प्रेम प्यार इश्क की बातें ,
छोड़ो अब बेकार की बातें।।
दूध के दाँत अभी टूटे नहीं,
बच्चे करते तलवार की बातें।।
सुनते सुनते डूब गये हम ,
कश्ती और पतवार की बातें।।
उम्र के इस मोड़ पर ढ़ूँढ़ें,
जाने किस संसार की बातें।।
रोज उन्हीं से मिलना है और,
रोज वही हर बार की बातें।।
"सुधा " अब उदास रहने लगी,
सुन सुन कर जंजाल की बातें।।
चिंतन करती रहती "प़ाक रूह "
क्षितिज पार बुलावे की बातें।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)-
तुम्हारी कसम हम, कभी न खायेंगे,
तुम्हें न कभी हम ,कहीं उलझायेंगे।
प्यार इक बूँद है , सदियों तक रहती है,
तुम्हारी खैरियत ही ,मन ही मन चाहेंगे।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)-
उन्नति की सीढियां, गर समझते हो मेरे यारों ,
सीढ़ियाँ चढ़ो ,कि सफलता की सीढ़ियाँ हैं गलती।।
खुद न देख पायें, दूसरा ही देख सकता है गलती,
भूल कौन नहीं करता ,मर्त्य का स्वभाव है गलती।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)-
प्रेम के पौधे बारिशों में पनप जाते हैं ,
उम्दा यह कि अंदर ही अंदर भीग जाते हैं।
प्रेम तो है बस एक संध्या का दीपक ,
रात के भय से हम बच जाते हैं ।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)
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न आस में बैठे हैं,
न आँख भिगोये हैं,
हम आँखों की रस्म छोड़कर,
दिल से रोये हैं। ।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)-
माँ सरस्वती! वर मुझे दे ये विलक्षण,
एक अर्पण में चरण स्पर्श कर लूँ।
मन के भावों को, समर्पित चरण में कर,
बस एक ही सास में ,निष्काम धर दूँ ।।
अनझरी धुन श्रावणी ,झुकते रहे ज्यों ,
हृदय मेरा नमित हो, तेरे भवन पर ।।
एक ही श्वास में, बस हूँ समर्पित,
माते! मुझको मिल सके, बस यही वर ।।
जो हमारे गीत में ,बहती तरलता ,
मिले उसको ढ़ाल ,केवल ओर तेरी ।
एक ही बन धार ,बहने लगें सब स्वर ,
विलय हों तुझमें झुकूँ ,जब ओर तेरी ।।
मानसर की ओर जाते ,हंस दल ,
एक गति से रात-दिन उड़ते हैं जैसे।
भावना मेरी उड़ें ,शिव मार्ग के पथ,
तीव्र गति से ,बिना भटके ठीक वैसे।।
लगे ईश्वर कहीं बसता,"सुधा" के मन आँगना,
प्रणय कुटिया वहीं बनती,मनस के इस प्राण में। ।
जहाँ माता सरस्वती ! वही संसार होता,
मधुर स्वप्न अनुरागी,तभी साकार में।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)-
नारी है ऊर्जा और शक्ति ,
संदेश दे रही नव रात्रि ।।
नर-नारी का समान अधिकार,
दर्शाता यही पावन त्योहार ।।
आसुरी वृत्तियों का होता नाश ,
पावन-पर्व दिलाता विश्वास। ।
संस्कार संस्कृति अपनी परम्पराएं,
सभी बंधुओं को शुभकामनाएं।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)
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गर जिंदा हैं तो मिट्टी की ,
जीत पर यकीन करो ।
गर कहीं है स्वर्ग तो ,
जमीन पर उतार लो ।।
विज्ञान और कला से ,
संवारो जल,वायु ,अग्नि को,
मिट्टी ही तो मूल है ,
बस मिट्टी से मिट्टी में खेलो।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)
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शक्ति शस्त्र और शास्त्र ,नारी तुम्हें अपनाने होंगे,
कोमलता का भार तुम्हें, स्वांग से हटाने होंगें।।
अपनी योनि की सुरक्षा में, स्वंय चक्षु दर्शाने होंगे,
सुंदर बदसूरत की ताड़ना, मन से निकलवाने होंगें।।
पिता पति और भाई तुम्हारी ,कब तक रक्षा कर पायेंगे,
खीझ जायेंगे इक दिन वह भी, दिवारों में जकड़ जायेंगें।
बलात्कार से डरना छोड़ो, निर्बलता के काँटे तोड़ो,
निडर चलोगी दुर्गा बनकर,भीगी बिल्ली सब बन जायेंगे।।
सुधा सक्सेना(प़ाक रूह)-