#काव्यसंकलन   (-काव्यसंकलन "श्वेत")
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Joined 8 March 2019


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इंसान से शमशान तक के सफ़र में,
ज़िन्दगी के अंत से बेख़बर मैं।

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*काश अभी हम बच्चे होते*

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रात की तन्हाईयों से बेहतर और क्या होगा।
फ़लक पर बैठे सितारों का कारवाँ होगा।

कोई जो तारा टूटता गर दिख जाए मुझे।
मेरी ग़म-कशाँ पर खुशियों का इशारा होगा।

मेरी जज़्बात का मुवक्किल वो हमसफ़र भी मेरा।
खुदी की आबरू मेरे वादों पर हारा होगा।

तेरी निग़ाहों में खुदगर्ज खड़ा शख़्स फ़क़त।
खुदा के दर का आख़िरी महज़ बेचारा होगा।

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खुद को समझ लेना हुनर की बात है।
ज़माने को समझ लेना मुक़द्दर की बात है।

हरएक बात समझ लेना पैग़ंबर की बात है।
कोई इक बात समझ लेना असर की बात है।

बिना ही बात समझ लेना नज़र की बात है।
नज़र की बात बयाँ करना जिगर की बात है।

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शरीक होना ही हर मसले में ज़रूरी नहीं होता।
हरएक शख़्स को समझ लेना ज़रूरी नहीं होता।

सितम होना ख़फ़ा होना गुमाँ होना ख़ता होना।
हरएक बात पर अड़ जाना ज़रूरी नहीं होता।

किया वादा ही गर टूट जाए हरएक मर्तबे किसी हद से।
रस्म वादों के दम निभाना ज़रूरी नहीं होता।

वफ़ा दिल से ही सही होती है इरादों से नहीं।
हर एक हर्फ़ को दोहराना ज़रूरी नहीं होता।

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अश्क जो रुख़सार से
होकर अधर पर छूटते।
हाय रे कितने दुःखों को,
तंज़ देकर फूटते।

रंज-ओ-गम की कोठियों में,
झाँककर देखा जहाँ भी,
सर पे अहसानों के मटके,
अश्म से पग टूटते।

और भी कुछ ख़ास राते,
ख़ास बाते काश होती।
और रोटी और जीवन,
और कुछ पल जुटते।

शख़्स वो तन्हा नहीं,
हालात का मारा हुआ है।
जी रहे हैं सब मगर,
उनके हकों लूटते।

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हर शख़्स मग़रूर है खुदी को आज़माने के लिए।
हुनर कैसी भी हो ज़माने को दिखलाने के लिए।

तमाशाबीन ही मुवक्किल हैं मेरी आरज़ू के सभी।
खड़े हैं मेरी ख़ता खुद के गले लगाने के लिए।

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हर-एक पयाम पर तेरा नाम मैं लिखकर हूँ पिया।
ग़ुबार ज़िन्दगी की सरेआम मैं रखकर हूँ पिया।

बचा नहीं कुछ छुपाने या बताने को मेरा।
तेरे दर पर मुक़द्दर पर मेरे हँसकर हूँ पिया।

गरीब आदमी पिता है थका भुलाने को।
तेरे ही वास्ते महज़ अमीरों के शहर में पिया।

कहीं मिल जाये सुकूँ मुझको तेरे ख़यालो से।
ख़ुदा के दर पर मेरी खुशियों की इबादत कर पिया।

बड़ी हुजूम है मैख़ाने में दिलजलों की यहाँ।
मेरे घर पर मेरी तन्हाइयों में छुपकर हूँ पिया।

मेरे वजूद से तेरी ख़्वाबों का सहर मिटाने के लिए।
मेरी बोतल से तेरे शिकवों की गुफ़्तगू कर पिया।

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रात ढलने तक मेरी चौखट पर दीये का जलना।
दिन निकलने तक मेरी चौखट पर दीये का जलना।

जगी हो रात तो कयामत की कोई बात नहीं।
सुकूँ देता है राहगीर को दीये का जलना।

बड़ी अरमान से थिरकती हैं लौ ये बाती पर।
अँधेरी रात की शोहरत है दीये का जलना।

कोई अरदास हो मैय्यत हो या इबादत हो कोई ।
हर इक फ़रियाद की जरूरत है दीये का जलना।

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क्या लगती है अब-तक क्या हो जाएगी।
ज़िन्दगी ईक-दिन ग़म-ज़दा हो जाएगी।

सुकूँ पाने का तहे-दिल को तसव्वुर ही तो था।
परेशा हूँ कि मुझसे भी कोई ख़ता हो जाएगी।

सज़ा गुनाहों की गर हो तो वजू हाज़िर है मेरा।
सज़ा-ए-मौत बेगुनाहों की इल्तिजा हो जाएगी।

शख़्स ऐसे भी मिलेंगे भरे-बाजार तुम्हें।
दोस्ती इश्क़. में बदलेगी बेवफ़ा हो जाएगी।

लोग जलते हैं भरी-रात में रौशनी से वही।
जिन्हें सक है अलग उनसे हम-नवा हो जाएगी।

दीदार-ए-इश्क़ में जलते हुए पतंगे ने कहा।
जिस्म जलकर मेरी मुहब्बत में फ़ना हो जाएगी।

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