बचपन से लगता था डर पानी में जाने में
यहाँ तक कि रोते थे तो रोज नहाने में
पापा भी डरते थे कि हम डूब नहीं जाएं
नर्मदा जाकर भी हम बाल्टी से नहाएं
जब भी देखें पानी में कूदता हुआ झमाझम
कितना मन करता था कि कभी तो तैरें हम
कितने बरसों गुजरे पर तैरना नहीं आया
एक सहेली ने कुछ थोड़ा सा हमको पाठ पढ़ाया
थोड़ा हाथ-पैर हम पटके और थोड़ा चिल्लाया
डूब गए होते हम पक्का उसने न होता बचाया
अब कभी न जाओगे पापा ने कान पकड़ाया
ऐसे ही बस बीत गए न जाने कितने साल
तैरना नहीं आने का मन में रहा हमेशा मलाल
बड़े हुए और निकल गए बाहर शिक्षा पाने को
लगी नौकरी व्यस्त हो गए रोटी हम कमाने को
जीवन की व्यस्तता में समय नहीं मिल पाया था
किन्तु तैरने का ख़याल मन से निकल न पाया था
कालान्तर में हमने छुट्टी का सद उपयोग किया
स्वीमिंग करने जाने को स्वीमिंग पूल जॉइन किया
पानी का डर अब निकल गया था आसानी से उतर गए
सीखा बबल फ्लोट और ग्लाइड कुछ दिन में ही कर गए
समय नहीं था ज्यादा हम पर प्रशिक्षक मिले बहुत ही अच्छे
सिखलाया स्ट्रोक ब्रेस्ट जो जल्दी हम सीख गए
पानी में जितना आनंद कहीं नहीं हमने पाया
सब कह्ते हो गई मैं काली काला रंग हमको भाया
इतना सुन्दर व्यायाम भी और जीवन कौशल साथ में
जीवन में आनंद घुला स्वास्थ्य रक्षा की बात में-
**Award recieved **
1. Vinay Ujal... read more
अपराध बोध (लघुकथा)
मेरी मम्मी अधिक व्रत-उपवास नहीं रखा करती थीं।केवल गिने-चुने ही थे, जिनमें तीजा मुख्य रूप से रखती थीं।एक बार पापा बहुत बीमार थे।उनको लिवर का कैंसर हो गया था और वो अस्पताल में भर्ती थे।तब किसी को इस बीमारी की जानकारी नहीं थी।चिकित्सकों ने पीलिया बताया था और इलाज कर रहे थे।उन्हीं दिनों तीजा का व्रत आ गया और अस्पताल की गतिविधियों के दौरान मम्मी को याद नहीं रहा और वे भूल गईं। पापा का इलाज चलते एक माह लगभग हो चुका था और उनकी हालत नहीं सुधर पा रही थी।हम लोगों ने सोचा कि डिस्चार्ज करा लें और हमने करा लिया।कुछ दिनों बाद पापा की हालत गिरती रही और एक दिन सुबह 4 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली। उस दिन मम्मी हमेशा अपने अंदर अपराध बोध का अनुभव करतीं कि उनके व्रत भूल जाने के कारण ही ऐसा हुआ।जब बाद में रिपोर्ट के माध्यम से पता चला कि उन्हें लिवर का कैंसर अंतिम अवस्था में होने के कारण ऐसा हुआ।तब बहुत मुश्किल से वे अपने अपराध बोध से बाहर आ सकीं।-
पढ़ाई और खेल
पढ़ना लिखना बहुत जरूरी,
किन्तु खेल भी उतना ही
सवाल गणित के खूब करें
दौड़-भाग भी उतना ही ।
दिमाग बनेगा तेज तभी,
जब तन होगा बलवान
मोबाइल पर गेम न खेलें,
चले जाएं मैदान ।
मित्रों संग हो भागमभाग,
तब ही भाती हमें किताब
केवल पढ़ते रहने से,
मन नीरस हो जाता है ।
आओ हो गई शाम सभी
ले लो तनिक विराम अभी
थोड़ी हँसी ठिठोली से ,
मन फिर ताजा हो जाता है ।-
आज जो सबसे प्यारा है वो किरकिरी बन जाएगा
जिसे आज है धिक्कारा कल काम वही है आएगा-
लोकगीत (हाय भोला)
हाय भोला कैलास पै पारबती संग बिराजौ
गनेस हैं तुमरे लल्ला हो
पारबती संग बिराजौ ,पारबती संग बिराजौ
स्कंद भी हैं तुमरे लल्ला हो
बेलपत्री धतूरा तुमरे मन भाए,बेलपत्री धतूरा तुमरे मन भाए
भांग, भसम, औ गंगाजल भाता हो
हाय भोला कैलास पै पारबती संग बिराजौ
गनेस हैं तुमरे लल्ला हो
मस्तक पै है साजे चंदा, सांपन की है माला
हाथ तिरसूल डमरू साजे हो
हाय भोला कैलास पै पारबती संग बिराजौ
गनेस हैं तुमरे लल्ला हो
सब वर पाएं, कैलासहिं जाएं
बस उनको गुस्सा न लगाना हो....-
उसे इतना पता है कि वो मुझको देखती होगी
वो सोती हो या हो जगती वो मुझको सोचती होगी
इतना जानकर भी वो चला कैसे गया है छोड़
कैसे काटता होगा वो पल छिन मुझसे मुँह को मोड़-
वो दरवाजा खोला तुमने जो पहले से बंद था
खुले हुए दरवाजों को बंद रखा तुमने सदा
इतनी शातिर बुद्धि कहाँ से मिली तुम्हें है आखिर
शातिर लोगों के भी तुम हो नाना दादा शातिर
चालाकी में कोई तुम्हारा सानी न बन सकता
तुम्हें भी मिल जाएगा ऐसा चालाकी का रास्ता
फँस जाओगे तुम भी एक दिन भागते मिले न रस्ता
बड़ा ही अचरज होता है जब तुम चालें चलते हो
तुम भोले बनकर जब जब भी लोगों को छलते हो-
तुम्हें अब मेरे जख्म दिखाई नहीं देते
मेरी चीख भी सुनाई अब नहीं देती
न जाने कबसे तुम मेरे घर नहीं आए
लगते हो जैसे अजनबी हो या पराये
एक दिन था कितना दुलार करते थे
थे कभी धूप में ज्यों हों घनेरे साये
तुमने प्यार भी किया इकरार भी किया
फिर क्यों बेवफ़ाई के इतने रंग दिखाए
हम कुछ नहीं कहेंगे सब हँस के ही सहेंगे
कर लेंगे याद वो दिन जब हम थे दिल पे छाए
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खुशियाँ देने का बोलके, उसने गम बेशुमार दिए
उजियारा करने का बोलके, उसने बुझा दिए सब दिए
मैं राहें उसकी तकती, वो जा रहा था मुझसे दूर
मैं कर नहीं पाई कुछ भी बस देखती रही मजबूर-
वो हमसफर कैसा, जो छोड़ गया मझधार
हमदर्दी वो कैसी जो, हो सकी न ग़मगुसार-