दरख़्त था मैं, कभी जो हर भरा था
हरियाली का चारो ओर मेरे पहरा था
चहचहाते पक्षियों से आंगन गुंजता मेरा
संबंध हमारा सबसे ही से बडा़ गहरा था
समय की मार के कई थपेडे़ झेले मैने
कभी खुशियों के देखे कई मेले मैने
दीप इसने भी लगाये, गीत गाये उसने
प्रेम की बातें सुनी,और कई दर्द के झमेले मैने
कहाँ वक्त भी, यकसां रहा करते है
सूखकर ठूंठ हुआ, दर्द यही सहा करते है
अब नही कोई दीप, कोई मेले आंगन मेरे
छिटककर दूर दूर, सब ही रहा करते है
नज़रे सबकी, तिरस्कार लिये उठती है
काम का कुछ भी नही रहा, यही कहती है
अब पहले सा फलदार, मैं रहा पेड़ नही
थामें ज़मी, है जो साथ मेरे, मुझको वही सहती है.कनु
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