जहाँ दूसरों को उनकी वाली
उनके माँ-बाप से
'अलग' करना चाहती है
वहीं 'मेरी वाली' मुझे
मेरे माँ-पापा की सेवा
करने को 'उकसाती' है
जहाँ बाकी चाहती हैं
उन पर हो ख़र्च
और ख़र्च भी हो बे-लगाम
यहाँ मेरी वाली ख़ुद पर तो क्या
'मेरे अपने ख़र्चों' पर भी
'लगाम' लगाती है
जो कोई अपनी वाली से
कभी बात ना कर पाये
वो सारी दुनिया सिर उठाती है
यहाँ मेरी वाली मुझे 'थका पाकर'
बात करने का 'ख़ुद का मन मार'
डाँट-डपट मुझे 'सुलाती' है
करती होगी दूसरों की
वो शोना-बेबी-बाबू
उनसे वो सब प्यार-व्यार
मेरी वाली तो बस हर पलछिन
हर साँस के साथ
मेरा 'साथ' निभाती है
- साकेत गर्ग 'सागा'-
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मैं रोज़ खिलता हूं, मैं रोज़ मुरझा हूं पर
ख़र्च कर दिया ख़ुद को मेंने
सब को अपनी सुगंध देते देते
और बदलें में क्या मिला मुझे
सुगंध क्या खो गई मेरे पास से
सब ने फेंक दिया तोड़ कर मुझे
ख़र्च कर दिया ख़ुद को मेंने और
एक बार भी ना सोचा
किसी ने मेरे बारे में
फूल था इस लिए
सुगंध बांटता चला
कांटा होता तो शायद कोई
पास भी नहीं आता एक बार मेरे
ख़र्च कर दिया ख़ुद को
मेंने किस के लिए पाता नहीं मुझे-
खाने के ढ़ंग - भाग 4
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.... कुर्सी इतनी भी छोटी नहीं
बनना है कुर्सी वाली लेकिन
कोई शिक्षक नहीं
मुझे ऐसी कुर्सी चाहिए
जिसे देख
एक बड़ा वर्ग सिर नवाए
शिक्षक का अब वो स्थान कहाँ
जो वह किसी को झुकाये
मुझे खरीद दो
एक सस्ता सा तरीका जीवन जीने के लिए ...
खाने की बात ले लीजिए ,
सभी खाते हैं
बड़ी से लेकर छोटी कुर्सी वाले भी
खाते और डकारते हैं ..
फिर भी प्रारंभ होना चाहिए
छोटी कुर्सी से ही
सब कुर्सी का ही तो खेल है
कोई मेल मिला तो कोई बे-मेल है
एक सामान कुर्सी वाला
चपरासी भी , अंदर जाने के लिए लेता है
और अस्पताल की एक नर्स भी
ख़र्च मांगती हैं
सभी तो खाते हैं
तरीका अलग -सा है, तो शर्म कैसी ?
मुझे ख़रीद दो
एक सस्ता -सा तरीका जीवन जीने के लिए ...-
ख़र्च कर दिया ख़ुद को
उलझनों के सौदे में
पर ये सौदा है कि,
निबटता ही नहीं
ना जाने और क्या-क्या माँगेगी
ज़िन्दगी! तेरा भरोसा कुछ भी नहीं-