आइना नहीं हक़ीक़त देख रहा
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किसी का आशियाना तो किसी की सांसें टूटी
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यहाँ तो हर कोई अपने अपने हिसाब का पक्का होने लगा
सुना है आहिस्ता-आहिस्ता वो जवाब का पक्का होने लगा
कल किसी का आशियाना तो आज किसी की सांसें टूटी है
यूं ही नहीं हर कोई अपने अपने ताब का पक्का होने लगा
मालूम होती है ये किसी के ख़ामोश ज़ख़्मों की कहानी है
इंसान ना जाने आज कौन से ख़्वाब का पक्का होने लगा
एक अलग सा ही धूंआ चारों तरफ धीरे धीरे से उठ रहा है
हां अब तो हर कोई अपने ख़ून-ए-नाब का पक्का होने लगा-
रातों का अफ़्साना
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मेरे साथ हर बार एक क़िस्सा हो जाता है
पता नहीं क्यों वो मेरा हिस्सा हो जाता है
रात की अंजुमन में ये कैसी गुफ़्तुगू हो रही
मुझे तो मेरे हर क़िस्से पे भरोसा हो जाता है
मैं उसे मन का भ्रम कहूं या फिर कुछ और कहूं
गुजरती रातों का अफ़्साना रोज़ाना हो जाता है
आजकल अपनी ही कहानी में उलझती जा रही
क्या मेरे साथ बातों का कोई बहाना हो जाता है-
नई जंगों से मुलाक़ात होती है
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तन्हा रातें में अक्सर अश्कों से मुलाक़ात होती है
यहाँ तो आए दिन ही ज़ख्मों से मुलाक़ात होती है
अब तोहफ़ों में मिलने लगा गमों का ताना - बाना
हां ज़िंदगी की नई - नई जंगों से मुलाक़ात होती है
बहते अश्कों की ख़ामोशी का एक अलग ही शौर
मेरी बदलते हुए चेहरों के रंगों से मुलाक़ात होती है
अब सरेआम क्या ही ठोकरों की दास्तां का सुनाऊं
ज़माने की इस भीड़ में यूं ग़ैरों से मुलाक़ात होती है-
चेहरे से एक नक़ाब खोल रहा
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आहिस्ता-आहिस्ता एक किताब खोल रहा हूं
मैं अपने ही चेहरे से एक नक़ाब खोल रहा हूं
स्वयं के प्रारम्भ लेकर स्वयं के अंत तक का
मैं अपने ही प्रश्नों के सारे जवाब खोल रहा हूं
आज फिर से सिमटी हुई ज़िंदगी को जीने चला
किताब नहीं मैं आधा अधूरा ख़्वाब खोल रहा हूं
मैंने वक़्त के हिसाब के साथ अनुभव को जोड़ा
हां कुछ नई तो कुछ पुरानी किताब खोल रहा हूं-
इल्ज़ामों का आइना
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ख़ामोशी से इल्ज़ामों का आइना दिखाकर चली गई
वो मुझे हक़ीक़त का इक रास्ता दिखाकर चली गई
छोटी छोटी बातों में ज़िंदगी इतनी उलझती जा रही
तीखे सवालों में वो अपना मुद्दआ दिखाकर चली गई
सुना है आज फिर वो रूठकर मेरी गली से निकली है
कहीं न कहीं वो मुझे रंग-ए-वफ़ा दिखाकर चली गई
ये चेहरे के हाओ-भाव निगाहों के सब राज़ खो रहें हैं
कानूनी कागजातों में एक फ़ैसला दिखाकर चली गई-