यहां शाम-ओ-सहर अच्छा नहीं है
न राही, रहगुज़र अच्छा नहीं है ।
थी मजबूरियां जो घर को छोड़ आए
पता तो था शहर अच्छा नहीं है ।।-
-:लघु कथा:-
उस दम्पत्ति के दो बेटे थे,
अब शहर में उनके अपने-अपने तीन मकान हैँ......-
पत्ता-पत्ता दिन मुरझाया, फूल-फूल मुरझायी रात
चर्चाओं के दौर चले पर, रही अधूरी उसकी बात
"मैं" और "हम" के बीच फ़ासला, शर्तों से कब मिट पाया
प्यार कहां तब शेष रहा जब, जीत-हार की बिछी बिसात
ऊंचे पद पा लिए सिफ़ारिश, रिश्तेदारी के चलते
टिकी रही निचली सतहों पर किन्तु विचारों की औक़ात
कड़वे सच के कौर घुटक कर जैसे-तैसे आए हैं
शहरों से खाली लौटों को, क्या दे पाएगा देहात
अक्सर कोई भीगा बाहर, कोई भीतर से भीगा
"वर्षा" में सब भीगे लेकिन, एक न हो पाई बरसात-
लगा लिया दिल इन पत्थरों के शहर से,
यहां चारों तरफ अपने बुत लगवाने की होड़ मची है।-
तेरे संग घूमता रहा मैं तेरे इस शहर में
तेरे जाने के बाद ये शहर मुझे ढूंढता है।-
चलोगे मेरे साथ ?
किसी अजनबी शहर में ।
जहाँ लोग तो बहुत होंगे ,
पर चेहरे में मुखोटे नहीं होंगे ।।-
माना मैं तुम्हारे नए शहर की पुरानी इमारत ही सही,
लोग आज भी मुझमें अपना बीता हुआ कल ढूंढते हैं !-
क्या आँखों में जलन, दिल में ज़हर हो रहा है
ये आसार ठीक नहीं, तुम्हें शहर हो रहा है
~सुप्रिया मिश्रा-
दफ़्न होकर घर के बूढ़ों ने मकां की नींव में
शहर भर की बिल्डिंगों को और पुख़्ता कर दिया।।-