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... So I'm reflected in my poetry
पत्ता-पत्ता दिन मुरझाया, फूल-फूल मुरझायी रात
चर्चाओं के दौर चले पर, रही अधूरी उसकी बात
"मैं" और "हम" के बीच फ़ासला, शर्तों से कब मिट पाया
प्यार कहां तब शेष रहा जब, जीत-हार की बिछी बिसात
ऊंचे पद पा लिए सिफ़ारिश, रिश्तेदारी के चलते
टिकी रही निचली सतहों पर किन्तु विचारों की औक़ात
कड़वे सच के कौर घुटक कर जैसे-तैसे आए हैं
शहरों से खाली लौटों को, क्या दे पाएगा देहात
अक्सर कोई भीगा बाहर, कोई भीतर से भीगा
"वर्षा" में सब भीगे लेकिन, एक न हो पाई बरसात-
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तुझे देखा नहीं कितने दिनों से।
सुकूं पाया नहीं कितने दिनों से।
न पलकों से लगीं पलकें ज़रा भी,
दिखा सपना नहीं कितने दिनों से।
शज़र तन्हा, परिन्दा भी नहीं है,
समा बदला नहीं कितने दिनों से।
न पूछो दोस्तो अब हाल मेरा,
पता अपना नहीं कितने दिनों से।
नदी सूखी, हवा भी नम नहीं है,
हुई "वर्षा" नहीं कितने दिनों से।-
जनवरी से दिसम्बर तक
तीन सौ पैंसठ दिन
बावन हफ्ते... और बारह महीने
यानी पूरा एक साल
ज़िन्दगी तुम्हारे बगैर
गुज़री है बीते साल
जैसे पूरी एक उम्र का
बयां हो हाल...
जवाब नदारत
सवाल पर सवाल
बेशक़ सिर्फ़ तुम्हारा...
और तुम्हारा ही ख़याल-
देखा था मिल के सपना
उम्मीद है कि अब के
हो जायेगा वो पूरा
ख़ुशियां खिलेंगी
बन कर इक फूल की तरह अब
ख़ुशबू बिखेर कर अब
चाहत सुकून देगी
इक नज़्म मेरे- तेरे होठों पे फिर सजेगी
हम साथ-साथ होंगे, दूरी नहीं रहेगी
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याद उसको उसी रास्ते की कथा
जिसमें मिलती रही है व्यथा ही व्यथा
तेज़ रफ़्तार थी ज़िन्दगी की बहुत
काम तो थे कई किंतु अवसर न था
जब से अस्मत लुटी एक मासूम की
देवता पर न उसकी रही आस्था
किस तरह वो तरक्क़ी करेंगे भला
जिनके पैरों में जकड़ी पुरानी प्रथा
बेवज़ह ज़िद पे अड़ने का जिनको शगल
बात करना भी उनसे यकीनन वृथा-
आग से भी खेलना है, राख होने का भी डर
इस तरह पूरा न होगा, ज़िन्दगी का ये सफर-
एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर
बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर-
शायरी मेरी सहेली की तरह
- डॉ. वर्षा सिंह
शायरी मेरी सहेली की तरह
मेंहदी वाली हथेली की तरह
हर्फ़ की परतों में खुलती जा रही
ज़िन्दगी जो थी पहेली की तरह
मेरे सिरहाने में तकिया ख़्वाब का
नींद आती है नवेली की तरह
आग की सतरें पिघल कर सांस में
फिर महकती हैं चमेली की तरह
ये मेरा दीवान "वर्षा"- धूप का
रोशनी की इक हवेली की तरह
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