Varsha Singh   (डॉ. वर्षा सिंह)
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Poetess
... So I'm reflected in my poetry
Joined 16 April 2017


Poetess
... So I'm reflected in my poetry
Joined 16 April 2017
27 FEB 2019 AT 17:49

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तुझे देखा नहीं कितने दिनों से।
सुकूं पाया नहीं कितने दिनों से।
न पलकों से लगीं पलकें ज़रा भी,
दिखा सपना नहीं कितने दिनों से।
शज़र तन्हा, परिन्दा भी नहीं है,
समा बदला नहीं कितने दिनों से।
न पूछो दोस्तो अब हाल मेरा,
पता अपना नहीं कितने दिनों से।
नदी सूखी, हवा भी नम नहीं है,
हुई "वर्षा" नहीं कितने दिनों से।

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29 DEC 2018 AT 19:50

जनवरी से दिसम्बर तक
तीन सौ पैंसठ दिन
बावन हफ्ते... और बारह महीने
यानी पूरा एक साल

ज़िन्दगी तुम्हारे बगैर
गुज़री है बीते साल
जैसे पूरी एक उम्र का
बयां हो हाल...
जवाब नदारत
सवाल पर सवाल
बेशक़ सिर्फ़ तुम्हारा...
और तुम्हारा ही ख़याल

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28 DEC 2018 AT 23:29

देखा था मिल के सपना
उम्मीद है कि अब के
हो जायेगा वो पूरा
ख़ुशियां खिलेंगी
बन कर इक फूल की तरह अब
ख़ुशबू बिखेर कर अब
चाहत सुकून देगी
इक नज़्म मेरे- तेरे होठों पे फिर सजेगी
हम साथ-साथ होंगे, दूरी नहीं रहेगी

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24 FEB 2021 AT 11:46


































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24 FEB 2021 AT 11:35






















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24 FEB 2021 AT 9:44

याद उसको उसी रास्ते की कथा
जिसमें मिलती रही है व्यथा ही व्यथा

तेज़ रफ़्तार थी ज़िन्दगी की बहुत
काम तो थे कई किंतु अवसर न था

जब से अस्मत लुटी एक मासूम की
देवता पर न उसकी रही आस्था

किस तरह वो तरक्क़ी करेंगे भला
जिनके पैरों में जकड़ी पुरानी प्रथा

बेवज़ह ज़िद पे अड़ने का जिनको शगल
बात करना भी उनसे यकीनन वृथा

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24 FEB 2021 AT 9:08

आग से भी खेलना है, राख होने का भी डर 
इस तरह पूरा न होगा, ज़िन्दगी का ये सफर 

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13 FEB 2021 AT 12:32

एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर
बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर 

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31 JAN 2021 AT 17:22

शायरी मेरी सहेली की तरह
           -  डॉ. वर्षा सिंह

शायरी मेरी सहेली की तरह
मेंहदी वाली हथेली की तरह

हर्फ़ की परतों में खुलती जा रही
ज़िन्दगी जो थी पहेली की तरह

मेरे सिरहाने में तकिया ख़्वाब का
नींद आती है नवेली की तरह

आग की सतरें पिघल कर सांस में
फिर महकती हैं चमेली की तरह

ये मेरा दीवान "वर्षा"- धूप का
रोशनी की इक हवेली की तरह

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1 JAN 2021 AT 20:47

नये साल में....
- डॉ. वर्षा सिंह
पूरी होंगी चर्चाएं जो बाकी हैं
नये साल में नयी उमीदें जागी हैं

आने वाले दिन शायद कुछ बेहतर हों
पिछली यादें बड़ी रुलाने वाली हैं

भरे हुए जो घर बाहर से लगते हैं
भीतर से वे बिलकुल खाली-खाली हैं

औरत का दर्ज़ा दुनिया में दोयम है
यूं कहने को वे ही दुनिया आधी हैं

रोज़ी की ख़ातिर जो भटके सड़कों पर
चलती-फिरती वे कबीर की साखी हैं

मोबाईल की भेंट चढ़ी हैं तालीमें
आगामी पर आज सभी पल भारी हैं

भेद-भाव की दिखती काली छाया है
जहां कहीं भी "वर्षा" नज़रें डाली हैं

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