मैं शहर "बनारस" बन जाऊं
तुम गंगा नदी सी बह जाना
मैं घाट घाट ठहर जाऊँ
बन दीपक जल में जल जाना
मैं घाट "केदार" का चरण छू लूँ
तुम गंगारती सी दरस जाना
मैं "विश्वनाथ" में रम जाऊँ
तुम "संकटा" सी संकट हर लेना
मैं "दशाश्वमेध" में बस जाऊँ
तुम "शीतला" बन उबार लेना
ये ज़िंदा शहर "बनारस" है
"मणिकर्णिका" सी मुक्ति दिला देना
ये मन व्याकुल हो भटकता है
चौसठ योगिनी बन धर लेना
में बार बार जो राह भूलूँ
बन कपीश राह दिखा देना
हे त्रिपुरारी जगतपति
अपने में मुझको समाना तुम
जह्नु सुता हे माँ गंगा
अंत में अंक में भर लेना तुम-
"व्याकुल और विक्षिप्त मन को... बहुत कुछ याद आ रहा....,,,, !"
"बीते दिनों की यादों का... ना जाने क्यों मौसम सता रहा....,,,, !"
"क्यों बिछड़ जाते है कुछ लोग मिलकर... जिंदगी की राहों में....,,,, !"
"आंसुओं का कतरा कतरा आज भी... उनकी कमी जता रहा....,,,, !"-
सागर से मिलने को व्याकुल है सरिता
कवि से मिलने को व्याकुल है कविता
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मुझ पर मेरा वो स्थित प्रभाव
बहुत कुछ सीखा गया तुम्हे
विचारमग्न छोड गया तुम्हे ..-
नियति के आगे सृजन कर्ता भी शीष नवाते हैं,
राजधर्म के खातिर सियाराम समर्पण कर जाते हैं,
प्रजा के निरर्थक शक के आगे माता झुक जाती हैं,
कुल के गौरव के खातिर सिया स्वयं का त्याग कराती हैं,
विरह न कर सकें जगत जिसको, भाग्य से हार जाते हैं,
निःठुर प्रजा, फर्ज़ के खातिर रूह भिन्न हो जाते हैं,
लेकर आशीष वो प्रभु चरणों का वन को चली जाती हैं,
द्वार खड़े प्रभु सिया विरह शोक जाने कब भोर हो जाती है।-
व्याकुल मन के स्पंदन
पल-पल करते कंपन
झर-झर बहते अश्रु
नैन करते क्रंदन...!-
मरती है स्त्री तो
बच्चे वदहास
बड़े बेबस
रोते लोग
उम्मीदें खत्म
ईश्वर व्याकुल
मौत स्तब्ध
शरीर शांत
नहीं रोता पति भारी बारिश सा
वो रोता है ओस सा रातों में;
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व्याकुल कितना ये ज़िद्दी मन है ,घोर तिमिर से घिरा
जीवन है !!
भूख भी एक तपस्या जैसी मुझ जैसे फकीरों को, नींद
गहरी सोया मेरा भगवन है!!-