मृणालिनी तिवारी   (मृणालिनी)
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Joined 10 December 2019


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" मोहब्बत सबके बस की बात नहीं "

(👇शेष अनुशीर्षक में👇)

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तेरी बलायें ले लूँ, खुशियों का अंबार तेरे नाम कर दूँ,
जन्मदिन है मेरे कान्हा का, ऐलान-ए-जन आवाम कर दूँ ।

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मन उलझन में है जाने कौन ?

कब हर्षित से व्यथित हो जाये, इस हृदय भाव को जाने कौन ?
कब क्या सोचे, कब चाह किसी की, इस मन को पहचाने कौन ?

सागर जैसी गहराई इसमें, क्या छिपा रखा है जाने कौन ?
मैं ना जानूँ क्या राज हैं इसके, कोई होगा पहचाने कौन ?

घिरी हुई मैं जन मानस से, क्यों मन तन्हा है जाने कौन ?
एकांतवास, क्यों द्वंद मचा है, परिणाम प्रलय पहचाने कौन ?

गिरते अश्रु की एक बूँद में, मिश्रित पीड़ा क्या जाने कौन ?
मन घबराया, और छलक गयें, व्याकुलता को पहचाने कौन ?

हर सुबह नई उम्मीद की आशा,  हो जाती धूमिल जाने कौन ?
सब खोकर भी आशान्वित मन के, नीरसता को पहचाने कौन ?

जब हिय में उफ़ान मचा हो, तब करुण भाव को जाने कौन ?
सब स्वप्न भस्म, शमशान बचे, तब व्यथा राख की जाने कौन ?

-मृणालिनी

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तुम शांत, सौम्य, शालीन हो
मैं हरदम कसती तान सनम,
तुम सीधे सादे भोले भंडारी
मैं नारद सी शैतान सनम....

तुम पानी हो सर्वत्र विलायक
वसा हूँ मैं जंजाल सनम,
तुम अक्रिय गैस विशिष्ट हो
मैं एटम बम विकराल सनम....

तुम रसगुल्ले हो मीठे वाले
मैं कढ़ी सी खट्टी नाल सनम,
तुम जीना सिखलाते हो
मैं मरना करती बेहाल सनम....

तुम एप्पल के मोबाईल हो
मैं चाइना वाली माल सनम,
तुम लॉन्ग टर्म गारण्टी वाले
मैं कब लाऊँ आकाल सनम....

तुम दक्षिण में रहने वाले
मध्य की हूँ मैं शान सनम,
थोड़ी झल्ली झगड़ालू हूँ
पर बनूँगी तुम्हरी जान सनम....

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पतित पावन, प्राणों को भावन, जो प्रेम की प्रतिरूप हैं,
प्रेम ही बस प्रेम जिनमें, मानों प्रकृति की ही रूप हैं,
हैं पावनी, मधुरम मनोहर, शीतल निशा समरूप हैं,
नतमस्तक है बारम्बार उनको, जो मातेश्वरी की स्वरूप हैं।

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संध्या जैसी शीतल है जो, स्वर्णिम किरणों सी निर्मल है,
वात्सल्य भरा है हृदय में जिसके, पुष्पों सा मन उसका कोमल है ।

आदर्श दिखे है भाव में जिसके, बोली मानों कोयल है,
सरल सुधा सबको जो प्यारी, उगते सूरज सी उज्ज्वल है ।


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क्यों मैं स्वयं को खो रही हूँ

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"ज़िन्दगी दो पल की"

भगता फिरता हर रोज मुसाफ़िर, हुश्न के शबाब को पाने  में,
क्षण मात्र श्वास स्तब्ध हुआ गर, देर श्मशान नहीं फ़िर आने में ।

लिप्सा में पूरा लिप्त है मन, जीवन का जश्न मनाने में,
ये तन तो केवल मिट्टी है, बड़ी देर लगी समझाने में ।

जब स्वार्थ स्वप्न से नेत्र खुले, क्या है इस भीड़ ज़माने में,
तब, प्रेम मात्र एक बंधन जिसने, जोड़ रखा अनजाने में ।

मृत्यु ही साश्वत सत्य है, करो न देर इसे अपनाने में,
दो पल भी जो शेष हैं, लगा दो प्रेम से प्रेम निभाने में ।

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जन्मदिन मेरे कान्हा का...
🎂🎂🎂🎂

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क्यों अज्ञात मैं...

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