कुन्दन ( کندن )   (कुंदन ( کندن ))
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Joined 26 April 2018


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मोहब्बत जब होगी मुलाकात तुझसे दुबारा
देखना की हम कैसे करेंगे तुम से किनारा

इतना याद रखना की अब गले नहीं लगाएंगे
हम भलेन तड़प कर यूँ ही ही मरेंगे बेसहारा

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हमारा एक होना नसीब में नहीं फिर भी
कैसे कोसेंगे हम दोनों इस समाज को

जरा गहराई सोच कर बताना तुम मुझे
क्या कभी बदल पाएंगे रीति रिवाज को

भले सपने किसी और के बनने लगी पर
कब तलक दबाओगी मन के आवाज को

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हाथों का एहसास भुला बैठी, हुए थे कितने पास भुला बैठी
कभी जो किया था हम पर वो सारा विश्वास भुला बैठी

संजीदगी हमने भी खोई, और समर्पण तुमने भी छोड़ा है
हमदोनों के मोहब्बत का सारा करके सत्यानाश भुला बैठी

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दर्द सुनने वाला हर कोई यहाँ
मरहम बनने वाला कोई नहीं

जिस्म की आग में झुलस गया
तन को ढकने वाला कोई नहीं

पत्थर एक दिन हो जाऊँगा पर
पुजारन बनने वाला कोई नहीं

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रात सुहानी कहे कहानी
बीती जाए तन्हा जवानी

उसे कोई फर्क नहीं अब
बहता है आँख का पानी

अपने लहंगे से आप तो
उनका मिलाओ शेरवानी

मेरी दुआ बस इतनी ही है
खुशहाल रहे वो जिंदगानी

दूर हो कर भी तुम हमेशा
पास रहेगी प्यार की निशानी

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हर आदमी एक तकलीफ़ से गुजरता है.....

एहतियातन कोई
ध्यान दे ना दे कोई फर्क नहीं पड़ता है
लेकिन जिसके लिए
वो नींद हराम कर दे वो जब आराम से सोता है
तो फिर बहुत अखरता है ......!!

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चूड़ियों के छन-छन में मधुर संगीत सुनाई देती है
हरेक चेहरे में मुझे अब बस तू ही दिखाई देती है

रतजगे ने मुझे अब लिखना सीखा दिया है क्योंकि
मेरी चश्म-ए-नम ही मुझे अक्सर रौशनाई देती है

नसीब की सब बात है यहाँ यूँ वस्ल के नजारे में
मिलन किसी को तो किसी को ये जुदाई देती है

इत्तिफ़ाकन बतेरी इत्मिनानीयत ने सबक दे दिया
तेरी बेरुखी बता रही है कि तू बे-वफ़ाई देती है

गलती भी क़बूल करने के बाद भी गुनहगार हूँ मैं
कभी कभी गलत-फहमियाँ भी यहाँ बुराई देती है

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रात के दिल में समाया है जब अँधेरा
चाह कर भी उस का हो कैसे सवेरा

जानता हूँ ख्वाहिशें अब पूरी न होगी
चाहता हूँ मिले तुम्हारी बाँह का घेरा

मेरा घर अब मेरा नहीं रहा इत्तेफ़ाक़न
क्योंकि हमारे रक़ीब ने डाला है डेरा

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गिरधारी की ग़र जहाँ में चली होती
तो फिर हर ग़ली प्रेम की ग़ली होती

कोई आशिक़ कभी ज़ुदा नहीं होता
और कोई भी राधा नहीं छली होती

शक़ को कोई जगह नहीं मिलती
आग में कभी सीता नही जली होती

प्रेम की डोर में बंधे होते यहाँ प्रेमी
खुर-दुरी सी फ़र्श भी मखमली होती

ना कोई पंडित होता न मौलवी होता
सम्प्रदायिक में ना यूँ खलबली होती

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आओ पतझड़ में भी मधुमास देखना
नदी के कंठ पर तुम भी प्यास देखना

उस दिन सबसे ज्यादा गिलानी होगी
अपनों का कभी विरोधाभास देखना

मेरे दिल को पत्थर कहा है ना तूने तो
इन पत्थर पर उगा हुआ घास देखना

अपने घोसलों को छोड़ कर तो देखो
खाली खाली तुम भी आकाश देखना

वक़्त मिले अपने शौहर से तो फिर से
इक़ बावले से चेहरे का विनाश देखना

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