कि है ये गरमअभी भी
गुस्ताखों को ख़ाक़ करने का दम है अभी भी-
खुदको खाली कर तेरी तन्हाई भरनी है
इस तरह कलम सा इश्क़ करना है मुझे
तुम घाव से क्यों डरते हो हमदम
खंजरों के शहर में मरहम सा बिकना है मुझे
ऐसे आधा तोड़ के मुझे घबरा मत
तेरे इश्क़ में अभी राख बनना है मुझे
सिर्फ अश्क बहाना इस दर्द की हद नहीं
सैकड़ों रातों का पहरेदार बनना है मुझे
मुनासिब है तुम नजरें चुरा के भाग जाओ
वरना मेरी वफाओं का और कर्जदार बनना है तुझे-
फूंककर गैर कर देती हूँ हर चाहने वाले को,
जलकर राख हुई हूँ मोहब्बत में जब से ।-
तुमने जब जिन्दगी भर अन्धेरों में रखा मुझे
अब मजारों पर दीपक जलाने से क्या फायदा
जब कभी तुम जीते जी रूबरू मेरे हो न सके
अब सुबह शाम ये सूरत दिखाने से क्या फायदा
तुमने समझे न मेरे दिल के कभी रंज-ओ-गम
अब अपने ये झूठे आंसू दिखाने से क्या फायदा
जब मेरे जख्मों के दर्द देखकर तुम हंसे उम्र भर
अब अपनी हमदर्दियां भी दिखाने से क्या फायदा
पहले शूल बनकर के मेरे दामन को जख्मी किया
अब वो रोज फूल माला चढाने से क्या फायदा
जब तुमसे दूर इतना गयी कभी लौट सकती नहीं
अब मुझको रोज यूँ वापस बुलाने से क्या फायदा-
अब जो आता है इस धरती में उसे एक ना एक दिन जाना ही पड़ता है और आत्मा तो अमर है बस शरीर ही जिन पांच तत्वों से मिलकर बना था आज उन्हीं तत्वों में जा के मिल गया है।
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दिए की लौ ही सही
अरमान टिम टिमा से गए
आरजुएं तेरी गुलज़ार रखने को देख
कितनी बातियों के ज़िस्म
जल कर राख़ हो गए
वक्त की आंधी चली
कुछ इस तरह
जज़्बात धुआं
और अरमान राख़ हो गए..!!-
आम का मौसम है,बाग ...दिखा दूँ क्या?
जल जल के हुआ हूँ मैं,कितना राख... दिखा दूँ क्या?
और शहर में चंद लोग मुझे काफ़िर कहते है,
अंदर से कितना हूँ मैं पाक... दिखा दूँ क्या?-
कुछ इस कदर मेरे जज़्बातों से वो मजाक करता है
कागज पर इश्क़ लिखता है फिर जला के राख करता है-